फिकर नहीं है जमाने की किंचित मात्र भी इस मन को.....
यदि है तो बस इक तुम्हारी है,यह दुनिया तु इसकी दुनियादारी है।
ऐसे ही कहाँ मुमकिन है बिखराव आपस में,अरे यार!सदियों पुरानी जो अपनी यारी है।।

- सनातनी_जितेंद्र मन