मैं हिंद की बेटी हूं।
इस लहराते तिरंगे की सौगंध
जब तक मेरे जिस्म में लहू का एक कतरा भी बहेगा
मां भारती यूं ही खिलखिलाती रहेंगी ।।
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मां, मेरी पहली मोहब्बत हो तुम!!
सोचा तो बहुत बार कि तुम्हारे पास आऊं और एक चाय की प्याली तुम्हें देते हुए अपना हाल-ए-दिल सुनाऊं।
मगर ना जाने क्यों हर बार मैं टालती गई कभी शर्म से तो कभी अभी वक्त नहीं ऐसा सोच कर मगर,
आज लगता है तुम्हें अपना हाल ए दिल सुना ही दूं!
ना जाने कब से बंद पड़े जज्बातों को आजाद कर दूं,
मुंह ताकते अल्फाजों को पन्नों पर पिरों दूं!
मां, मेरी पहली मोहब्बत हो तुम!!
मेरी जिंदगी तो फीकी चाय सी है मगर इस चाय कोचुस्की लायक बनाने वाली मीठी शक्कर सी हो तुम।
मां, मेरी पहली मोहब्बत हो तुम!!
मां, मेरी पहली मोहब्बत हो तुम!!
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There is nothing real in me. I am just the first copy of my father, "Mr. Sanjeev Kumar".
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एक लंबे इंतजार के बाद मैंने सूर्योदय होते देखा,
आंसुओं के बोझ तले पलकों को खुद उठकर मुस्कुराते देखा
इस साल मैंने खुद ही खुद को आश्चर्य से निहारते देखा।।
इस साल मैंने खुद ही खुद को पीछे छोड़ते देखा,
बरसों बाद मैने उस स्मृति का साथ छोड़ दिया
जो रोशनी में तो आना चाहती थी मगर,
निगाहों से खौफ खाती थीं।
इस साल मैंने खुद ही खुद को पीछे छोड़ते देखा,
इस साल मैंने खुद को हारते नहीं जीतते देखा
इस साल मैंने मौन रह भी खुद को गूंजते देखा ।।
इस साल मैं एक अलग स्मृति से मिली
वह स्मृति जो डरती तो आज भी है मगर,
वह हार कर अपने कदम पीछे नहीं मोड़ती ना ही ठहरती है।।
इस साल मेरी मुलाकात उस स्मृति से हुई जो हालातों से लड़ती है ;
जो लड़ना ही नहीं जीतना भी जानती है।।
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पिताजी आज फिर एक गुजारिश लेकर आई हू!
पिताजी आज फिर एक गुजारिश लेकर आई हू!
पिताजी अगले जनम मोरे बिटिया बन जन्मना।
शायद तभी दे पाऊंगी मैं आपको भी उतना ही प्यार।
चुका पाऊंगी इस जनम का भी उधार।।
जो फिर आप पिताजी बन आओगे।
मैं फिर तुम्हे ना समझ पाऊंगी।।
अभी से भी ज्यादा आपकी कर्जदार हो जाऊंगी।
पिताजी अगले जनम मोरे बिटिया बन आना।।
वादा है शिकायत का एक भी मौका ना दूंगी।
तुम जैसी ही मैं बन कर दिखाऊंगी।।
पिताजी आज फिर एक गुजारिश लेकर आई हू!
पिताजी अगले जनम मोरे बिटिया बन जन्मना।
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Women are loved based on how much they can sacrifice; Men's are loved based on how much they can provide 🤔
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किस कलम की स्याही से पन्नों पर उकेरू मै अपना जीवन।
कोहरे से ढके मेरे अंधेरे जीवन को आपने रोशन किया है।।
मां तो कहती थी बिटिया है,
इस बिटिया को बेटो सा आपने किया है।
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क्या चांद की रोशनी हिंदुओं पर बराबर पड़ती नहीं?
क्या सूर्योदय की पहली किरण आज भी नज़मा के सपनों को झकझोरती नहीं?
क्या करवा चौथ और ईद का चांद भी बटा होता है?
क्या वह आसमां भी मजहब देख बारिश किया करता है?
क्या भगवत गीता के पन्नों में कुरान की आवाज गूंजती नहीं?
क्या मस्जिद की अजान श्री राम की जीवन शैली से मिलती नहीं?
क्या दिवाली की लौ नज़मा के घर को रोशन करती नहीं?
क्या गोली और बारूदो से मजहब को मिटाया जा सकता है?
क्या चंद इंसानों को मिटा कर सर्वशक्तिमान ईश्वर को हराया जा सकता है?
क्या इंसानियत का ही कत्ल कर खुद को धर्मी ठहराया जा सकता है?
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आखिर लड़कों में यह सुपीरियरीटी की भावना क्यों और कैसे उत्पन्न होती है?
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मां, मैं तुम सी बनना चाहती हूं।
मुसीबतों को पीछे छोड़ मुस्कुराना चाहती हूं।।
झुकना नहीं नियति को झुकाना चाहती हूं।
मां, मैं तुम सी बनना चाहती हूं।।
अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति कड़ी मेहनत और
आत्मविश्वास से आसमान में उड़ान भरना चाहती हूं।
मां, मैं तुम सी बनना चाहती हूं।।-