जो सायों में पलते हैं,
वो अकेले कहाँ निकलते हैं?
बड़े नाज़ुक होते हैं,
ज़रा सी धूप में इनके पाँव जलते हैं।
मिरे ख़्वाब, हर कश में राख़ बनते हैं,
ए ज़िंदगी आ, तेरा हिसाब करते हैं।
उनके क़ब्र में भी रंग मिलते हैं,
मीरे बग़ीचे के ग़ुलाब भी काले खिलते हैं।
रोशनी रास नहीं आती मुझे,
अँधेरे में मुझे मीरे साये मिलते हैं।-
नयी उमंग,
नये रंग,
नया जोश,
नयी सोच ।
फिर एक,
नया सपना !
नया निश्चय,
नयी कल्पना !
नव वर्ष की शुभकामनाएँ।-
"जब बन्द आंखों में सपने हों,
विश्वास दीप जब जलते हों,
लक्ष्य कोई जब जीवन में,
तब नींद कहाँ आती है।"
"बढ़ रहे जब प्रगति पथ पर,
सोच तुम्हारी उन्नत अग्रसर,
आशायें जब नभ को छुयें,
तब नींद कहाँ आती है।"
"विचारों को जब पंख लगे,
जब जीर्ण संभावना अर्थ लगे,
आधी रात जब जग सोये,
और, मंथन में हैं आप लगे,
तब नींद कहाँ आती है।"-
रचनात्मकता कविता:
अनुभव, अनूभूति और कलात्मकता,
तीन स्तंभ में छुपी रचनात्मकता,
बिम्ब और कल्पना, आत्मा बनकर,
सृजन करे विविध सुंदरता।
शिल्पकार को देखो,
कैसे पत्थर से मूरत है बनाता,
छैनी और हथौड़ा लेकर,
प्रवाहपूर्ण, लय गति दिखाता।
(Full Poem in Caption)-
दर्द:
मैं दर्द का विशेषज्ञ हूँ,
हर प्रकार के दर्द जानता हूँ।
(Full Poem in Caption)-
फिरते लिए विकार मन में,
सम्मान खोते, एक क्षण में,
गुण दोष भरता, तमस तन में,
किसका हुआ हित?
जब संदेह मन में।
अपने दृगों को फेरकर,
विक्षिप्त हो, आवेश भरकर,
घूमते, दिग्भ्रमित वन में,
किसको मिले पथ?
जब संदेह मन में।
दास, जब अपने ही भ्रम के,
आत्म केंद्रित, संकुचित मर्म के,
‘कारा’ गढ़े सघन, जीवन में,
कैसे मिले आनंद?
जब संदेह मन में।-
चलो फिर हुंकार भरते हैं,
बुझे मन में फिर से जान भरते हैं,
दिशा दीप्त का सही समय है,
आशायें ले ललकार करते हैं।
अभी कहाँ मंजिल आयी है,
रुकने की अब, ना कोई बात करते हैं,
पथ में कंकड़ पत्थर तो चुभते ही हैं,
लहू शेष है, चलो संग्राम करते हैं।
जीवन कुरुक्षेत्र सा साध करते है,
क्या खोया, क्या पाया व्यर्थ ही विलाप करते है,
कृष्ण की गीता, अर्जुन सा वार करते है,
श्रम का ‘तेज’, बाण सा, धनुर से प्रहार करते है,
पाने ‘सफलता’, एक बार फिर शंखनाद करते हैं,
सतत साधना, अविराम करते है,
दिशा दीप्त का सही समय है,
आशायें ले ललकार करते हैं।-
दो बच्चे,
दोनों ही अच्छे!
एक की ‘आँखे’, आइस क्रीम में ‘चेरी’ ढूँढ रही,
एक की ‘कूड़े’ में रोटी,
‘कूड़े वाले’ की आँखों में ‘आशा’ है,
‘आइस क्रीम’ वाले की आँखों में ‘निराशा’ है,
एक प्रेम से रोटी खा रहा है,
एक चेरी चेरी चिल्ला रहा है,
ये समाज की ‘आँखें’ है,
अपने हिसाब से ‘झाँके’ हैं।-
तू किसी ठहरे पानी जैसी,
शीतल शांत प्रेयसी,
मैं काला पत्थर!, कौतूहल से फेंका हुआ,
हलचल मचाता डूब जाता हूँ।
मेरी अभिलाषा रेत थी, उन इमारतों में चिपकी हुई,
जिस पर लेप लगता है, सुंदर दिखाने के लिए,
क्या व्यर्थ है? वो दृश्य मोह का,
मैं तल से देखता हूँ।
मैं किसी टीले से बिछड़ा हुआ,
हवाओं का ज़ोर, मुझे ले उड़ा था,
मैं! , मेरे शून्य में लिपटा हुआ,
समय पे छोड़ देता हूँ।-