Singh Shivam   (चन्द्रमौलि सिंह)
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Joined 23 November 2017


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6 AUG AT 13:38

नाज़ुकी में वो मिसाल-ए-महरबाँ लगती है,
जैसे हवाओं में किसी गुल की खुशबू सी बसी हो।
उसकी सादगी में है हकीक़त की वो शफ़्फ़ाफ़ी,
कि आईने ने भी सर झुका इबादत सी की हो।।

लबों पे चंचलता, निगाहों में इंकलाब सा,
हर एक लहजा अज़ीज़, हर लम्हा हसीं सा है।
ताज़गी सी बरसती है, उसके हर तसव्वुर से,
जैसे बारिश ने फूलों को छुआ पहली दफ़ा है।।

मैंने मोहब्बत को कभी आवाज़ नहीं दी,
पर वो रुह तक उतर जाने वाली, सदा सी है।
साज़ो-श्रृंगार की नक़्क़ाशी है, उसकी हर अदा में,
जैसे कुदरत ने इश्क की नई रचना रची सी है।।

होंठ ख़ामोश हैं फिर भी दिल गाता रहता है,
वो अमावस में भी, पूनम की चाँद लगती है।
उसे पाने की आरज़ू नहीं, बस देखता रहूँ मैं,
किस्सों में पढ़ी जाने वाली सुंदर नज़्म सी लगती है।।

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23 JUL AT 0:01

नाद ब्रह्म का कलरव स्वर, बन के गूंजे जो हर ओर,
वही हैं, रूद्र, आदि-स्वरूप, सृष्टि के वो अंतिम छोर।
भस्मांग धरे, श्वेत वर्ण, कराल रूप में, जिनका सौंदर्य अनूप,
चंद्र है शीश पर, जटाओं में स्थिर गंगा, जो अमरत्व का रूप।।

जो ध्यान की समाधि में, अतीत से सदैव मौन हैं,
जो चिता की लपटों में समाहित, वो अनंग कौन हैं?
वो योगिराज, कालजयी, तिमिर में दिव्य प्रकाश हैं,
वो शून्य में नाद के नायक, अनाहत स्वर की आस हैं।।

दुष्ट, निशाचर और पिशाच भी, जिन्हें भय से शीश झुकाए,
त्रिनेत्र खुले जब जब, तीनों लोकों में विनाश छा जाए।
हलाहल विष को पिया सहजता से, नीलकंठ जो कहलाए ,
प्रलय में भी निश्चल रह, सृष्टि को फिर नव स्वरूप में लाए।— % &जिनकी जटाओं से प्रकट हुई त्रिलोक को तीर्थ-सुधा,
जिनकी दृष्टि से दीप्त हुई, युगों-युगों की दिव्य विधा,
जिनकी डमरू की नाद से ब्रह्मांडों में गति संचार हुआ,
जिनके तांडव-नर्तन से सृजन-प्रलय का विस्तार हुआ।।

कण-कण में जिनकी चेतना, अणु-अणु में उनका वास,
जिनकी समाधि से जागे देव, जिनसे उपजा हर प्रकाश।
कैलाश पर्वत जिनका धाम, शक्ति के वो पति,
नंदी सा सेवक जिनका, गणों के वो अधिपति।।

गंगाधर, शिव, हर, रुद्र, महादेव, जटाजूट, चंद्रशेखर,
सृष्टि बसी हो श्वासों में, पार्वती पति, वो प्रलयंकर।
ना आरंभ उनका, ना अंत है, ना वो बाधित हैं काल से,
अखंड, अगम, अनादि, अनंत, परात्पर शिव,
मुक्त हैं वो हर बन्धन और जाल से।।

— % &जिनके त्रिनेत्र से जले,
कामदेव का सुंदर जीवन,
विरूपाक्ष हैं शिव महायोगी,
जिनकी दृष्टि में निहित मरण,
कपालभ्रृत्त, रुप धरकर,
जो करुणा के सिंधु कहलाए,
मृगव्यास, वो बन वनवासी,
ऋषियों को सन्मार्ग पर लाए।।

महामृत्युंजय, शिव, महादेव,
जिनके नाम से मृत्यु भी जीवन पाती है,
सदाशिव, वो करूणानिधान,
जिनकी कृपा से मुक्ति भी सुगम हो जाती है।
अर्धनारीश्वर रूप में आकर,
जो समभाव से प्रकृति को गले लगाते हैं,
स्वरूप काल भैरव का धर कर,
जो अधर्म पर धर्म को विजय दिलाते हैं।।


— % &ना केवल देवों के वो देव हैं,
पंचतत्वों की अलौकिक ज्वाला हैं,
हिरण्यगर्भ से बहुत पूर्व,
वो नाद और विराम की अविरल धारा हैं।

स्वयम्भू हैं वो, साक्षात् सत्य हैं,
वो ब्रह्मा-विष्णु के मूल हैं,
भक्तवत्सल, वो कृपानिधान,
जिनकी भक्ति सबके अनुकूल हैं।।

— % &

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12 JUL AT 22:13

छला गया हूँ बारहा,
अपने ही वफादारों से,
हर बार रंजिशें मिली,
अपने ही साएदारों से।
अब दुश्मनों की चालों का,
मुझे क्या ही खौफ करना,
जब मेरे ही साजिद शामिल हुए
मेरे ही गुनहगारों में।।

जिसे समझा था घर का चिराग,
वो आँधियों का रहबर निकला।
जिसे माना था रहनुमा अपना,
वही मेरे कातिलों की महफ़िल में मिला।।

अब गैरों से कोई गिला कैसा,
जब मेरे फरिश्ते, मुझे जहर से मारते हैं।
मेरे लिए उनकी जुबां पर कुछ और,
और दिल में कुछ और मानते हैं ।।

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11 JUL AT 0:07

अपने हाथों से लिखी, मुक़द्दर की मैं डोर चाहता था,
ख़ुद से बुनी हुई, सपनों की एक भोर चाहता था।

जो कुछ भी मिला मुझे, उन सब के लिए नमन तुझे,
Dear जिंदगी, मैं तुझसे बहुत कुछ और चाहता था।।

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10 JUL AT 0:03

स्वराज्य क्या है? यह केवल शासन की व्यवस्था नहीं, बल्कि हमारी आत्मा का प्रतिबिंब है। यह वह स्वप्न है जो हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले अपनी आंखों में संजोया था। वह स्वप्न जिसमें भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक चेतना थी। जहां शासन का उद्देश्य केवल सत्ता नहीं था, बल्कि धर्म, संस्कृति और परंपरा की रक्षा करना था। स्वराज्य का अर्थ था – अपने धर्म, अपनी भाषा, अपने आचरण, अपनी सभ्यता और अपनी मातृभूमि के लिए निर्भय होकर जीना।

जब भारतवर्ष पर आक्रमण हुआ, तब हमारे पूर्वजों ने तलवार नहीं फेंकी, आत्मसमर्पण नहीं किया, बल्कि अपने रक्त से इस राष्ट्र की रचना की। वह रक्त आज भी इस भूमि में स्पंदित होता है। महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराज पृथ्वीराज चौहान, महाराज हेमू, बप्पा रावल, राजा दाहिर, महाराजा रंजीत सिंह, गुरु गोविंद सिंह, गुरु तेग बहादुर, सुहेलदेव राजभर जैसे अनगिनत योद्धाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत की रक्षा केवल सीमाओं से नहीं, बल्कि संस्कृति से होती है। इन वीरों के लिए राज्य सत्ता का साधन नहीं था, बल्कि वह धर्म और आत्मसम्मान की रक्षा का माध्यम था।

महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में अकबर की सेनाओं का सामना किया, उनके पास संसाधन नहीं थे, लेकिन आत्मबल अपार था। उन्होंने घास की रोटी खाई, जंगलों में जीवन बिताया, लेकिन आत्मसम्मान नहीं छोड़ा। — % &छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की संकल्पना दी, जहां हर व्यक्ति को न्याय मिले, धर्म की रक्षा हो, और विदेशी आक्रांताओं का डटकर सामना किया जाए। उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की – ऐसा शासन जहां हिन्दू संस्कृति सुरक्षित हो, महिलाएं सम्मानित हों, और जनता के अधिकार संरक्षित हों।
संभाजी राजे ने धर्म की रक्षा के लिए अपना शरीर बलिदान कर दिया, लेकिन इस्लामी आततायी औरंगजेब के सामने झुके नहीं। उनकी नृशंस हत्या हुई, लेकिन उन्होंने धर्म नहीं छोड़ा।

गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने चारों साहिबज़ादों को धर्म की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया, और स्वयं जीवनभर मुग़लों से लड़े। गुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए दिल्ली में अपना शीश कटवाया, लेकिन अन्याय के सामने झुके नहीं।

इतिहास में दर्ज है कि जब विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर हमला किया, तब भारत के कोने-कोने से योद्धा उठे – भाषा अलग थी, प्रदेश अलग था, लेकिन उद्देश्य एक था: भारत माता की रक्षा। 1857 की क्रांति इसका ज्वलंत प्रमाण थी। मंगल पांडे ने पहला विद्रोह किया, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने युद्धभूमि में बलिदान दिया, तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, बिरसा मुंडा, कुंवर सिंह, सभी ने एक साथ अंग्रेजों पर धावा बोला। किसी ने नहीं पूछा कौन ब्राह्मण है, कौन राजपूत है, कौन किस प्रदेश से है या किस प्रकार की भाषा बोलता है, सबके स्वर एक थे,— % &सभी ने एक ही नारा दिया – स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर 20वीं शताब्दी में जब भारत को स्वतंत्रता दिलाने की लड़ाई तेज हुई, तब राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे युवाओं ने बिना किसी जातिगत भेदभाव के देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। राम प्रसाद बिस्मिल, जो उत्तर प्रदेश से थे, उन्होंने क्रांतिकारी गीत लिखा:
"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए क़ातिल में है।" चंद्रशेखर आज़ाद ने अंतिम सांस तक अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी, और अपने ही रिवॉल्वर से खुद को गोली मार ली, लेकिन आत्मसमर्पण नहीं किया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने फांसी को गले लगाया, लेकिन भारत की स्वतंत्रता के उद्देश्य से पीछे नहीं हटे।

यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन सभी के भीतर भारत को लेकर एक तीव्र प्रेम था – वह भारत जो केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण था। वे जानते थे कि जब तक भारत का समाज एक नहीं होगा, तब तक कोई भी विदेशी शक्ति हम पर शासन करती रहेगी।

आज, जब भारत स्वतंत्र है, तब हम किस दिशा में जा रहे हैं? हम भाषा के नाम पर लड़ रहे हैं, जाति के नाम पर एक-दूसरे को अपमानित कर रहे हैं, राज्यों के नाम पर नफ़रत फैला रहे हैं। क्या यही वह भारत है, जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी? — % &क्या यही वह समाज है, जिसके लिए हमारे महान योद्धाओं ने अपने शरीर की आहुति दी थी? यदि आपको "जय महाराष्ट्र" कहने में समस्या है, या "जय बिहार" सुनकर चिढ़ होती है, तो आप राष्ट्रवादी नहीं हो सकते। अगर आपको "जय उत्तर प्रदेश" या "जय तमिलनाडु" कहने में असहजता है, तो आप भारत के सच्चे सपूत नहीं हो सकते।

भारत के हर कोने ने बलिदान दिया है। कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप तक – हर क्षेत्र की माटी में वीरों का रक्त है। यह राष्ट्र विभाजन से नहीं, बल्कि एकता से बना है। यह राष्ट्र जाति से नहीं, संस्कृति से चलता है। यह राष्ट्र धर्म के नाम पर नहीं बंटता, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए संगठित होता है।

आज आवश्यकता है उस हिंदवी स्वराज्य की पुनः स्थापना की – जहां धर्म हो, पर कोई संप्रदायिकता नहीं, जहां भाषा हो, पर कोई विभाजन नहीं, जहां संस्कृति हो, पर कट्टरता नहीं। जहां हर हिंदू अपने धर्म, अपने राष्ट्र और अपने समाज के प्रति समर्पित हो। जहां भारत माता की जय कहने वाला, किसी भी राज्य से हो, वह आपका सहोदर हो, राष्ट्रवाद का अर्थ केवल नारा नहीं है, वह आचरण है। अपने देश के प्रति कर्तव्य, अपने पूर्वजों के बलिदानों के प्रति सम्मान, और अपनी संस्कृति के प्रति गर्व – यही सच्चा राष्ट्रवाद है, अपने सांस्कृतिक और धार्मिक पद्धतियों का सच्चे मन से निर्वहन एवं सबको समान भाव से देखने का दृष्टिकोण होना चाहिए ।
— % &हमें चाहिए कि हम अपने इतिहास से सीखें। हम अपने बच्चों को सिखाएं कि उनके पूर्वज केवल तलवार के धनी नहीं थे, बल्कि संस्कृति के संरक्षक भी थे। हमें चाहिए कि हम मंदिरों की, ग्रंथों की, संस्कृतियों की रक्षा करें – जिस प्रकार हमारे योद्धाओं ने अपनी आहुतियां देकर अपने मूल्यों, संस्कारों और सीमाओं की रक्षा की थी। उन्होंने बालिदान दिए थे, हमे बस यह देश संभालना है ।

अगर हम आज भी भाषा, जाति और राज्य के नाम पर लड़ते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत फिर से मानसिक ग़ुलामी में चला जाएगा। यह समय है अपने आप का गंभीरता से अवलोकन करने का, किसी भी राजनीतिक बहाव में अपने समाज नैतिकता और देश के कर्तव्यों के विपरीत आचरण करने से बचने का ।

भारत को फिर से उस स्वरूप में लाने का, जिसकी कल्पना शिवाजी महाराज ने की थी। जहां यह भारतवर्ष नीति एवं धर्म से संचालित हो, जहां समाज एक सूत्र में बंधा हो, जहां हर व्यक्ति राष्ट्र को प्राथमिकता दे। यही हिंदवी स्वराज्य है – और यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए, तदोपरांत ही हम इस देश को महान बना पाएंगे।

भारत माता की जय।
जाति नहीं, धर्म नहीं, भाषा नहीं – भारत पहले है, भारत सर्वोपरि है । स्वराज्य अमर रहे। 🚩— % &

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3 JUL AT 1:21

गांव चौपाल की गूंजें अब सुनाई नहीं देतीं,
बूढ़े पीपल की छाँव में अब बातें नहीं होतीं।
टूटे से तख्त, बिसरे विरासत की यादें हैं,
बिन शब्दों के भी करती कितनी फरियादें हैं।।

कभी हर कोने में बसी थी, रौनकें गाँव की,
अब दीवारें भी तरसती हैं, सर्दियों के अलाव की।
मिट्टी के चूल्हे की आँच, वो सोंधी महक खो गई है,
गांव समाज की मिठास, अब संसाधनों से धो दी गई हैं।।

पुराने घरों की वो खिड़की, लकड़ी की वो कुर्सी,
गवाह थीं रिश्तों की, हँसी, आंसू और फुर्सत की।
अब वो मर्यादाएं परंपराएँ बस तस्वीरों में रह गईं हैं,
वक़्त की आंधी में समाज की जड़ें भी बह गईं हैं।।

पुरानी दीवारों की घन घोर चुप्पी, कुछ कहती है,
समय थम गया है, पर यादों की छाया बहती है।।
वो खिड़की से आती रोशनी का अब अहसास नहीं है,
कंक्रीट के घरों में अब खिड़कियों पर विश्वास नहीं है।।

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3 JUL AT 0:40

सृष्टि के पूर्व जो मौन थे, सबके अधरों पर कौन थे?
ब्रह्माण्ड जो शून्य से जन्मा, तो शून्य के रचयिता कौन थे?

न उन्नत जीवन संपन्न न कोई भोग विलास,
न कोई व्यक्तिगत जीवन, न इच्छा ही कोई खास।
समस्त विश्व में तप का वैदिक रंग भरा,
त्रिनेत्र से जो देखे अंतर, वो सत्य में भी संग भरा।।

जिनकी जटा में समय ठहरे, संहार करे वो भी करुणामय।
विष पीकर भी शांत रहे जो, वो ही तो शिव, अनुपम, अमय।।

मृत्यु भी जिनसे डर जाती है, जीवन उनके चरण निहारे।
जिनकी क्रोधाग्नि भी कल्याणमय, जिनके मौन में ब्रह्म उचारे।।

भूतों के भी अधिपति जो हैं, पर अंतर में सौम्य निवास।
श्रद्धा से जो मन जोड़ चले, उनके चरणों में हो विलास।।

न शस्त्र उठाएं, न सिंहासन, केवल 'करुणा' की है तलवार।
जो नतमस्तक हो उनके सम्मुख, उसे मिले मुक्तिपथ विस्तार।।

दीनों के दुख वो सह जाते, पापों को हँसकर हर लेते।
अश्रु जो चढ़ जाएँ शिव को, उनसे पुण्य स्वर्ग भी रेंगते।।

ना याचक से कुछ भी पूछें, ना साधक से जन्म विचार।
बस भाव शुद्ध हो प्रेमसिक्त, तो मिल जाता नाद अपार।

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16 JUN AT 22:21

हमारे दरमियां, इक खामोश सी कहानी थी,
हर बात में, तेरी मेरी ज़ुबां की रवानी सी थी।
तुम्हारी हर कसम को, मैंने इबादत बना लिया,
और उन कसमों को भी, तुमने मज़ाक बना दिया।।

वो शामें, वो बारिशें, सब कुछ तेरे नाम था,
अब हर मौसम वीरान है, हर लम्हा बेनाम है।
तुम जो चले गए तो सिर्फ तुम नहीं गई,
तुम मेरे अंदर की वो रौशनी भी साथ ले गई।।

अब गलियों में तुम्हारा नाम पुकारता हूं मैं,
तेरे यादों की चादर ओढ़े, हर रोज़ बिलखता हूं मैं।
वो वादे, वो बातें, सब अब धुंधले हैं बहुत,
पर तुमसे जुड़ा हर अहसास अब भी जिंदा है कहीं।

वो सपने, वो अरमान, वो ख्वाब हमारे,
तुम बिन भी हर रोज मेरे हाथों से बनते हैं।
हमारे दरमियां जो ख्वाब और उम्मीद थी,
मुझ संग वो साए की तरह आज भी चलते हैं।।

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16 JUN AT 20:03

Many chase it, day and night,
Over dreams they lose their sight.
Never pausing, hearts grow cold,
Even love gets bought and sold.
Yet true wealth is peace, not gold.

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16 JUN AT 6:08

तुम्हें तो कोई देखेगा, तसव्वुर की तपिश से,
कभी अक्स में उलझकर, कभी एहसास की बारिश से।
मगर वो चश्म-ए-तामीर, मेरी नजरों का वो नूर,
कहाँ से लाएगा कोई, हमसा तालीम-ए-शऊर।।

वो निगाहों का झुक जाना, वो इबादत का सलीका था,
हर लम्हा तुम्हें देखना, जैसे सजदा हक़ीक़ा था।
तुम्हें चाहेंगे कई, दिल से दुआ बनाकर,
पर वो सादगी-ए-वफ़ा कहाँ, जो हमारी आँखें लाती थीं।

— % &तुम्हें तो देखेगा कोई, मोहब्बत की नज़र से,
कभी तारीफ़ों से, कभी दिल की खबर से।
मगर वो सच्चा लम्हा, वो रुहानी नज़ारा,
हमारी आंखों का हुनर कौन ला पाएगा दोबारा।

वो नज़रों का झुकना, वो दिल की दुआ बन जाना,
हर जख़्म पे मरहम बनके, खामोश सा मुस्कुराना।
तुम्हें चाहेंगे सभी, मगर उस तरह नहीं शायद,
जिस तरह हमने चाहा था, हर साँस को सजदा बना के।।— % &

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