THE BATTLE OF BURNS !
Part 1
( A short fiction that exposes tender hearts to brutal choices)-
Speak shallow_ just mine with ink.
Its deeper, darker but dear.
तू आसमान का ज़िक्र करे -
मैं चाँद उतारूँ,
कागज़ पर...
तुझे चार रोज़ बस जीने को -
मैं खुदको मारूँ,
कागज़ पर...
चल तुझको भी आज़ादी है - जी चाहे उतनी शर्तें रख....
मैं भी क़ानूनी दाँव चलूँ ;
तुझे जीतूँ - हारूँ ,
कागज़ पर..!
- कोमल 'विनोद'-
कि जीत तेरे नाम - मैं हारी,
मैं मानती हूँ...
थी घाटे की ये साझेदारी,
मैं मानती हूँ...
अब छोड़ो भी क्या किसके हिस्से रहा....
तुम सभी के - मैं केवल तुम्हारी,
मैं मानती हूँ...!
तुम पाक सही - मैं बाज़ारी,
मैं मानती हूँ...
मेरी शराफत में थी दुनियादारी,
मैं मानती हूँ...
जो मैं चाहूँ तो सारे मैख़ाने ख़रीदूँ....
पर महँगी है तेरी खुमारी,
मैं मानती हूँ...!
ये जानकर ही मैं बस अपने बस में रही...
तुम क्या जानो कि किस कश्मक़श में रही !!
हाँ - बस मुझको थी दिल की बिमारी,
मैं मानती हूँ...!
तेरी गलती नहीं - मेरी सारी,
मैं मानती हूँ...!!
- कोमल 'विनोद'-
वो बात ही क्या बात जो न वक़्त पर कही गई ?
इलज़ाम है अब वक़्त पर - था वक़्त ही सही नहीं !
हर अँधेरी क़ैद से वो रेत सा फिसल गया...
मलाल भी किस बात का जब वक़्त ही निकल गया !
वक़्त ज़ख्म है यहाँ - वक़्त ही मरहम है...
मसला यही है वक़्त का कि वक़्त ही तो कम है !
है कौन ऐसा पीर जिसको वक़्त से गिला नहीं ?
है वक़्त का तक़ाज़ा कि बस वक़्त ही मिला नहीं !
- कोमल ' विनोद '-