Singh Archana   (Arçhãñã)
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Joined 27 January 2021


Joined 27 January 2021
11 NOV 2022 AT 21:16





मुझे अपनी तस्वीर खिंचवानी है !
इक ऐसी तस्वीर,
जो परे हो‌ हर निस्पंदन से ,
बिल्कुल वास्तविक ,
जो हूं मैं , मुझ सरीख ....
ऐसी छवि सजानी है !
ना किसी आकलन की पीर ,
न किसी खिल्ली का भय ....
न कोई संकोच , संसय ,
मैंने सुंदर हूं या नहीं , ये मायने नहीं
बस मैं यही हूं , इसके मायने हैं !
जग को ये जतानी है!
उकेर कर ख़ुद को
वजूद की मान मनवानी है।
Archana.......

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12 SEP 2022 AT 8:32

ये बारिश की बूंदें भी ना,
बहुत कुछ बयां कर जाती है!
अरसो बिती यादों को,
पल में नयां कर जाती है.....
ये आंसमा ,
जैसे मेरी कोई राज़ जानता है,
धरा पर बरसना तो ठीक है.....
मुझे क्यूं सानता है ?
और ये आग लगाने का काम ,
मस्तमौला हवा कर जाती है.........


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11 SEP 2022 AT 23:21

मैंने रवैयो को बदलते ‌देखा है!
बेझिझक बतियाने वालों को, सम्हलते देखा है....
सगो को रुतबा के रंग में रंगते देखा है ,
रगो में एक खून पर द्वेष से परिपूर्ण ढंग में ढलते देखा है!
मैंने अपनों को अपने बदलते देखा है!

आवाज़ में स्वार्थ के आगाह से लुकते देखा है!
बुरा वक़्त कहीं उन्हें भी न छू ले,
देहली पे हीं कदम रुकते देखा है!
मैंने ओहदा को निकटता का सौदा करते देखा है!

अच्छाई मेरी हल्की‌ है शायद,
दुर उड़ जाती है पल ‌में !
बुराईयों का पलड़ा तगड़ा है,
तभी तो चर्चो में उनके , पर्चे उड़ते देखा है !
मैंने लाचारी को लक्षण की परिभाषा में ‌ढरकते देखा है.......
Archana....

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10 JUN 2022 AT 0:02

मुझे राधीका सी लगन न लगाना,
मुझे तो मीरा सी‌ धुन सजाना है!
प्रतीक्षा में अश्रु न बहाना ,
इच्छा में हीं समा जाना है।

ब्रजरानी ने रो कर हीं क्या पाया,
विरह, तड़प अपने मोहना से बिछड़न की माया!
मुझे राधा सा वियोग में सुध-बुध ना गंवाना,
मुझे तो मीरा सा स्याम उन्माद में मतवाला हो जाना है।

विरह की चोट तो तब लगे , जब स्वयं को तुझसे पृथक जानू,
जो मिश्रीत हो सांसो में , भला क्यों उसको विभक्त मानू ?
राधा का प्रेम अजर अमर है, गुनगान सदा गाना है!
पर मुझे उन सा राधारमण विछोह से न हिय प्रभंजना,
मुझे तो मीरा सा मुरारी , मुरारी जप मोहन की मूर्ति में हीं मिल जाना है।

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31 MAY 2022 AT 0:35




























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31 MAY 2022 AT 0:05

खामियों का बचपना अभी बाक़ी है,
उछल आती है सबके सामने......
गुण परिपक्व हो चुका ,
उसे ख़ुद को जताने की ज़रूरत नहीं ।

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24 MAY 2022 AT 10:33

तपती धरा पे प्रथम बूंद से मिलती राहत सी,
मनोवांछित न सही, बस दिखा जा आहट हीं!

अमित तप चुका अंतस , यादें तेरी इतनी तपिश,
इस उष्णता को अभीष्टता की दे असीस!

प्रिय 'हिय' को छवि अपनी‌ अनाहत सी,
इसी विधि भूलूं हर 'कष्ट साध्य' बसाहट हीं !

थकती आंखें ताक अनीश,
झलक मात्र से भूल जाऊं सारी रिस!

कर उपकार , करके स्वीकार 'करना' चकोर पे चांद की इनायत सी,
सुख क्या तृप्ति पाले मेरी हर घबराहट हीं।

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21 MAY 2022 AT 19:03

अब पहचान हीं मिटाने का जी कर रहा,
सबसे अनजान हो जाने का जी कर रहा!
गिला करु भी भला क्यों उनसे ?
जिन्हें हमसे मिलने पर भी शिक़ायत हीं रही......
निशब्द हो जाने का जी कर रहा!

उंमग जो मान से,
व्यंग जो अपमान से,
दोनों से हीं आंखें चुराने का जी कर रहा,
हो के भी न होना है,
होना क्यूंकि न होने के बराबर सा हो चूका ....
अनुभूति और अज्ञान का दरमियान हीं मिटाने का जी कर रहा!



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4 MAY 2022 AT 10:55

नियति ने जो दिया है लिख,
वो तो होना हीं है!
कमर कस ले रे पथिक,
तुझे कभी ना रोना है!
देख दिव्य दिवाकर सा कौन?
ग्रहण के संकट सम्मुख वो भी मौन!
पर हां तय है आफ़त की अवधि भी,
संतुलित प्रभुता की हर विधी हीं,
आविर्भाव संग अव्यक्ता भी!
सुन बन तू नौका सरीख,
बढ़ने को जिसे लहरों का भार ढोना हीं है!
भिती न आये राह के रोडो़ से तनिक,
बस पड़ाव संजोना है ।

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25 APR 2022 AT 18:11






















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