बस हसरतें आती रहे और जाती रहे
जो मौत तक बनी रहे तू वो "आरज़ू" रहे मेरी।
लोग ढूँढते रहे रब को मंदिर मस्जिद मज़ारों मे
मेरा तो खुदा भी यही हैं दीदार तेरा "जन्नत" रहे मेरी।
"माँ का कर्ज" इन चंद शब्दों में समेट लेती दुनिया तुझे
जिसे खोखले लफ़्ज़ों में न पिरों पाऊँ वो "नज़्म" हो तू मेरी।
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जो मुलाकात भी मय्यसर न हुई
मैयत पर भी मेरी....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी आने में।
जो बीता हर एक इतवार
तेरे झूठे एतबारों के इंतजार में....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी जताने में।
जो अश्क़ बहाये थे अक्सर
तेरे अक्स को ढूंढते ढूंढते....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी दिल लगाने में
मुंतज़िर जो तेरी हकीकत के
मुखालिफ जमाने को बना बैठे....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी हकीकत बताने में।
ये तो फर्ज था तेरा
या अब फर्क नही पड़ता....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी याद आने में।
जो गुम हूँ कहीं मैं
गुमनाम अंधेरी राहों में....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी ढूंढ के लाने में।
हाँ मालूम है अक्सर देर कर दिया करते हो
पर जो मुलाकात भी मय्यसर न हुई
मैयत पर भी मेरी....
बहुत "पछताओगे" जो देर कर दी इस गम से बचाने में।
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लाचार वो नही....
जो विकलांग हैं शरीर से
लाचार तो बिचारे वो हैं
जो "अपंग" हैं सोच से।
इंसान होकर.....
गर "इंसानियत" नही सीख पाए
तो क्या फायदे धर्म और कौम के
जला के बसी बस्तियाँ.......
रखवाले बनते हो किस "ढ़ोंग" के।
खून तो ....
हर रग में बहता लाल ही है
तो बाँट कैसे लेते हो बाहरी रंग से
"फैसले" और "फासले" बस विचारों के हैं
जब तक अपंग हो सोच से......😊
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एक तन्हा सी रात में......
कलम से मेरी गुफ्तगू में....
पूछ बैठी वो मुझसे अचानक
यूँ तो सबकी तकलीफ महसूस हो जाती है
तुम्हे बिना अल्फाज़ के.......
उस कागज़ के टुकड़े का क्या
जिस पर तुम्हारी नज़्मों का दर्द रिसता है।
अल्फाज़ तो महज नाम हैं और
नज़्म वो दुनिया के लिए है.........
सच से तो बस वो कागज़ का टुकड़ा रूबरू है
की कुछ दर्द कहीं "बेनाम" हैं।
जब भी तुम्हारे जज्बात अल्फाज़ बनकर
उस पर उतरा करते हैं............
कलम तो में दुनिया के लिए हूँ
तलवार सरीखी से उसके सीने में चुभ जाया करती हूँ।
यूँ नज़्म लिख कर जो कभी कभी
उसे फाड़ के फेंक दिया करती हो......
क्या बिल्कुल महसूस नही होता तुम्हे कि उसके
कतरे कतरे में लिपटा दर्द है जिससे दुनिया अनजान है।
बहुत भारी बोझ होता होगा न
जो तुम उस पर लिख कर उतार दिया करती हो.....
वो कोरा सा कागज़ सहम जाता है कि
दर्द के समुन्दर में उसकी कश्ती का कहाँ किनारा होगा।
आह भर के मैं बोल पड़ी
हाँ वाकिफ हूँ मैं इस कहानी से
दर्द के समुन्दर में मौजो की रवानी से........
हाँ मैं नज़्मों से उसे तकलीफ दिया करती हूँ
पर अब तुम ही बताओ....कि और कोई साहिल भी तो नही
जो बचा ले मुझे "किनारा " बन के।।।।।।
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क्यों "दोस्ती" शब्द का भार ढो रहे हो
वेवजह इन नाज़ुक से कंधों पर
मेरी दोस्ती के काबिल नही नीयत तुम्हारी
आज़ादी की इजाज़त है क्यों वक़्त गवां रहे हो
अनचाही सी इन राहों पर।
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वक़्त लगा पर मुस्कुराना फिर से सीख लिया
भले ही सच्ची न सही .....
पर इस मुस्कुराहट से सबको जलाना सीख लिया
नकाबपोशों की इस भीड़ में शान से चलते हैं अब
साहेब हमने भी" मुस्कुराहट के पीछे "
हर दर्द छुपाना सीख लिया।
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स्वभाव में मेरे ज़ी हुज़ूरी नही...
इसलिए थोड़ा हट के हैं मेरे रास्ते,
अब बे-ज़मीर भी तो नही हुआ जाता
इन "खुशामद " करने वालों के वास्ते।-
हाँ हमे रोना पड़ता है कभी होठों पर मुस्कुराहट लिए
कभी आँखो में सपनो की बारात लिए
दिल के टूटे अरमानो को समेटना पड़ता है.....
टूटे ख्वाबों की तपिश में झुलसना पड़ता है...
हाँ "हमें रोना पड़ता है" सूखे अश्क़ों का साथ लिए.....
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विचलित धरा यूँ आह भर के बोली
अब तो आ जाओ प्रीतम,भर दो प्रीत की झोली
कभी फूलों की तो कभी कोहरे की चुनर भी ओढ़ी
वियोग के अश्क़ों को छुपाते छुपाते बीत गयी होली
विदीर्ण हृदय है..........श्रृंगार रस भी रास नही आते
अब न तरसाओ...तड़पाओ... न और करो अठखेली
अब तो बरस जाओ ,वर्ष भर से तुम्हारी राह है टटोली
अब तो आ जाओ प्रीतम ,भर दो प्रीत की झोली ।
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Jab per thakne lage mere ...
Jab hath kapne lage mere....
Jab aankhein nam ho meri....
Jab kalam bhi mujhse roothi ho meri...
Jab tay n ho pye mujhse hmre bich ki duri...
Kaash phir se
"ऐसे में तुम आ जाओ" ban k आवाज़ meri🙂-