फर्क होता है,
स्त्री-स्त्री में भी
हर स्त्री माँ होती है
पर सब,
माँ सी नहीं होती-
कांटो को छुए बिना,
पंखुड़ियों को गुलाब की
तुम....
बखूबी समझोगे क्या ??
राहों में गिरे बिना,
मंजिल पाने की खुशी
तुम....
बखूबी समझोगे क्या???-
जिंदगी का स्वाद
मैं कुछ यूं चखती हूँ....
नीम-करेले सी बातें पीकर
इरादों को मजबूत करती हूँ....-
दौड़ो तुम,
अपने पिज़्ज़ा बर्गर पर।
मुझे... मेरे
दाल-भात पर ही ठहरने दो।
उड़ो ऊंचा तुम,
गगन में दूर सबसे।
मुझे जमीं में,
अपनों के साथ ही खिलने दो।-
सुकून की तलाश में
जो शहर-शहर भटकते हो न तुम
कुछ देर ठहरकर
मां का पता फिर से याद कर लेना-
तेरे हाथ का,
सादा दाल-भात भी
तृप्त कर जाता था मन को
पर अब ,
इन छप्पन भोगों से भी
मोह होता नहीं हमको-
हसरतें हजार अब रही नहीं
बस एक ख्वाहिश बाकी है
रखकर सर अपना, तेरे कांधे में
हौले से मुस्कुराना "मेरा" काफी है-
इंसा को कैद
पंछी को आजाद देखा है
सालों बाद मैंने आज
आसमां को आबाद देखा है-
दहन कर रावण को
तुम हर साल जश्न मनाते हो
पर मंथरा के ऊपर
क्यूँ आज भी मौन धर जाते हो??
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