कोई केह्वे मारे काम घणो
ओ दुखड़ो सुब्हे-स्याम घणो।
में केवु यो सब थारे ही पाये,
म्हारे एकलिंगजी रो नाम घणो।।-
भाग मत कर प्रयास
कर प्रयास भाग मत
जीत ही हार है हार ही जीत है
पा सके जो लक्ष्य को वो ... read more
अब भी हवाएं आके वो ही बात कहती है।
कुछ अनकहे से,अनसुने जज़्बात कहती है।
आशय से मेरे तुमको, क्या ही जान पड़ता है,
दिसंबर आते ही ये, दर्द इतना कैसे बढ़ता है।।
वो पूरे साल के लम्हे , वो पूरे साल की बाते।
पूरे साल भर में मिली हुई,कुछ चंद मुलाकाते।
कहीं दिलबरो का साथ,कहीं थी रोज़ फरियादे,
और कैसे भुल जाएं हम, वो धूसर धुंधली यादें।।
एक ख्याल मात्र आना,सिकन सब दूर हो जाना।
कैसे भूलकर आनंद में सबकुछ, चूर हो जाना।
प्रकाश! कैसी फकीरी है, जहां उम्मीदें बसती है,
फटे झोले से झांक कर, आशाएं खूब हंसती है।।
चित्त में सुरक्षित है सदा, वो स्वर्णिम सुख पल।
जिनको देख मुस्काएगा, कोई आने वाला कल।
ये उपवन वो ही जीवन है,जहां कई फूल खिलेंगे,
करो वादा क्यों ना फिर से,किसी पतझड़ में मिलेंगे।।-
शूरा, संता री है धरती या,
धरती या अमर कहाणी ज्यूं।
यूंही ना मिल्यो स्वाभिमान इणने,
राणा खून सिंच्यो अठे पाणी ज्युं।।-
दिसंबर के आखिरी ढलते दिन से रात ने पूछा
दफ्न, मायूस पूरे साल के जज़्बात ने पूछा
तपन ये औज,आभा अबतलक तुम तान बैठे हो,
तुम्हारा आ गया है अंत, बादलों के साथ ने पूछा।।
कभी सूखे हुए सागर तट की सूखी रेत से पूछा?
पतझड़ में लिपटती पेड़ के उस बेंत से पूछा?
दिन बोला तुम्हारा प्रश्न ये क्या प्रश्न नही था जो,
लेकर दिसंबर का सहारा यूं संकेत से पूछा?
कभी मनमस्त मस्तानों के दिलों के होश से पूछा?
महामारी की जंग जीत चुके उस जोश से पूछा?
जरा तात्पर्य तो समझा दो ए जाते हुए इक्कीस,
बादल,रात और जज़्बात ने दिन को रोक के पूछा।।
"'एक अंत ही तो आरंभ का जयनाद होता है।
ढलता है स्वर सुरो में तो मृदु वाद् होता है।
सिसकती देख के संध्या को तू घबरा ना-ए-राही,
जब ये टूट जाती हैं तो शुभ प्रभात होता है।।"'-
बदलेगी घटाएं ये ,मौसम शामों शहर
बन दिन-माह-वर्ष जाएगा वक्त गुज़र
खफ़ा,वफ़ा से मन ये जब भर जाए,
लौट आना मिलेंगे तूझे सदा तत्पर।।
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चाह थी मेरी इस सावन में,की पास में बैठा यार हो
एक छोटी सी छतरी हो और रिमझिम सी बौछार हो।
उस अध टपकती छत से हर बूंद जमीं पे न्यौछार हो
कुछ नमी भरी हो मौसम में कुछ हवाओं में दुलार हो।
जग जूम झुके और पूछ पड़े की यही प्रेम का सार हो
जब एक हाथ में हाथ हो और एक में चाय का भार हो।
किंतु ऐसा हो जाता कैसे कवियों की कल्पनाएं पार हो
खुद ज़माना भी उम्मीद करे बस स्वपन्न भरा संसार हो।
तो यार कभी आ सका नहीं, छतरी पड़े-पड़े लाचार थी
ये सावन भी बीत गया ऐसा कहके गिरी एक फुहार थी।-
उगते सूरज सो तेज़ लियो
स्वर्ण नगरी रा टिला सू
लियो शरणागति रो मूलमंत्र
रणथम्भोरी हठबिला सु ।।
ली शौर्य,वीरता कण कण सु
जिण राणा,राजा,राव जण्या
जो मान झुकावे माटी रो
बैरी का वे सुरा काल बणया।।
धणी एकलिंग जी री कृपा सु
स्वाभिमान राणा के भाला पे
गौरव की गंध जो चड़ बैठी
एक फूल ,फूल एक माला पे।।
म्हारी आन,आबरू मारवाड़ी
मोतिया सु महंगी हाड़ौती
शेखावाटी अंचल म्हारो
ओ श्रृंगार सजिलो ढूंढाड़ी।।
में हर एक लहरा साथ बहयो
में शत्रु कोप ,रक्तपात सहयो
कण कण पावन पुकार करी
तब जाके *राजस्थान* कहयो।।-
Part-3
क्या तुम्हें याद है?
जतन करके भला कितने वो तेरे दीदार को आना
बेचैन निगाहों ने तुझे ढूंढा उमड़ती भीड़ में जाना
अधर,आंखों,अदाओं ने समां को क्या ही बांधा था
और आओगे कभी जनाब तेरा ये कह के मुस्काना।।
अब तू ही बता ललक मेरी ये इश्क़ या उन्माद है।
क्या तुम्हे याद है?-
अद्मयानुराग है फिर भी
तमस उज्जवल पे हावी।
चितहरी रैन का चंदा
तृणिक तारों पे न्यौछावी ।।-