अरसों से जो समेटे हुए रखा था मैंने खुदको,
एक एक आँसुवों के कतरे में,
फिरसे बिखरते हुये देखा है मैंने खुदको,
जो कहता था उम्मीदें मत रखो किसी से,
अब खुद ही उम्मीदों से,
चोट खाता हुआ देखा है मैंने खुदको...
-
क्या ये अल्फाज काफी नहीं हमें बयाँ करने के लिये..
उम्मीदें क्या और किस से ही करना,
जब हर कोई सिखा कर जा रहा है,
की आखिर में अकेले ही जाना है...-
वैसे ही गम कम नहीं है इस जिंदगी में,
ए दिल कमसे कम तु तो अब किसी की ख्वाहिश ना कर...-
युँ इस कदर आँसुवों को क्यों रोक रहे हो,
सामने जिसके रो सको, ऐसा शख्स क्यों ढूँढ रहे हो,
लड़े हो आजतक अकेले ही तुम,
फिर ये आज कल तुम इतना कमजोर क्यों हो रहे हो...-
नकाब लगा के जो घूमता हूँ दिन में,
उसे तुम एक झटके में क्यों उतार फेकती हों,
खुदको जितना मजबूत दिखलाता फिरता हूँ,
ए 'रात' तुम मुझे उतना ही क्यों कमजोर करती हो...-
कुछ तो चुभन है दिल में,
युँ बेवजह ही लोग,
देर रातों तक जगा नहीं करते...-
रोना आ रहा है तो रो लो ना हबीब,
यूँ इस तरह आँसुवों को कैद करना अच्छी बात तो नहीं...-
हर किसी को तुम खुदसे दूर क्यों कर रहे हो,
यूँ इस कदर खुदको सजा क्यों दे रहे हो...-
आज उसका दिल पूरी तरह से टूटा होगा,
उसने सिर्फ और सिर्फ मुझे ही कोसा होगा,
कैसे उम्मीद करू खुदके मोहब्बत मुकम्मल होने का,
ना जाने मैंने भी तो कितनों के दिल तोड़ा होगा...-