रखकर पत्थर दिल पर लख़्त-ए-ज़िगर जुदा करते हैं
सय्याद से बचने को, तोहफ़ा-ए-रिदा दिया करते है
शिकस्ता-पा, मलाल-ए-दिल, किधर जाते हैं दीवाने
लौटते नही अब घर को, हक़-ए-निदा दिया करते है
ज़मीन पर बहते लहू,ज़ख्मों के निशान हैं लाशों पर
फूल बरसा कर, दोस्ती का फ़र्ज़ अदा किया करते है
वो लाडले बंदे,कबूल होती है जिनकी सब ही दुआएं
रात आख़िरी पहर,जो ज़िक्र-ए-ख़ुदा किया करते है
रफ़ू कर के लिबास-ए-कोहना को बार बार पहनते है
खुदा!तेरे बंदे मुफ़्लिसी में भी शुक्रअदा किया करते है
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