Siddhant Singh   (Siddhant Singh ©)
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Joined 5 September 2017


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Joined 5 September 2017
14 NOV 2019 AT 7:57

हमें हॅसना मुस्कुराना है, इस बालदिवस पर हमें बच्चा बन जाना है..
थोड़ी मस्ती, थोड़ी शरारत करना है, उसी से सबको रिझाना है...
फिर पाने को एक लाल टॉफ़ी, फिर बच्चा बन जाना हैं...
याद करके वह बिछड़ा पल, मुझे उस दुनिया मै खो जाना हैं...
पापा को अपने नन्हे अंदाज़ से थोड़ा और रिझाना हैं,
ना मिलने पर एक खिलौना, रोना चिल्लाना है...
इस बाल दिवस पर मुझको, वापस बच्चा बन जाना हैं...
ना समझ हो ज़माने की, ना फ़िक्र किसी फ़साने की...
ना डर किसी बात का , ना फ्यूचर का कुछ रोना हो...
कागज़ की कश्ती हो , और कुछ मस्ती हो...
दिल मे केवल शरारत बस्ती हो...
कुछ तो बात है, जो बचपन की अच्छी थी..
बच्चे नहीं हैं तो अब क्या हुआ, बचपने को दिल मे बनाये रखना है...
मस्ती मज़ाक़ शरारत ना सही, उनकी यादों को संभाल कर रखना है...
नन्हा सा तन लिए, भोला सा मन लिए..
तुम्ही हो प्यारे बच्चे, देश का भविष्य लिए...
सुनो मासूम नौनिहालों, ये वक़्त तुमसे क्या कहे..
सही राह पर कदम बढ़ाना, लक्ष्य अपना साथ लिये...
जीवन मे आयंगे कई भटकाव, तब मन को ही सब सुनाना हैं...
भेड चाल सी इस दुनिया मे अपनी पहचान बनाना है...
बचपन बीत गया कागज़ की कश्ती बनाने मे...
पता ही नहीं चला सखियों संग, गुड्डे गुडियो का खेल करने मै...
कब बड़े हो गए हम ...

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6 SEP 2019 AT 20:02

जिंदगी की दौड़ मे खुद को पीछे पाते हो...
मंजिल लगे पहुँच से काफ़ी दूर ओर डर को पीछे पाते हो ...
सूजे ना कोई रास्ता ओर सामने खड़े हो सवाल हज़ार...
ओर जब फिर हारने का डर सताये ,सवालों का ढेर मन पर उड़ान लगाये....
या डर सामने खुद आकर खड़ा हो जाये...
तब लो एक लंबी सांस ओर मुट्ठी मे हिम्मत बांध लेना....
ओर छोड़ पीछे शक को सारे,वो पहला कदम बढ़ा के देख लेना...
छठ जाते है सवालों की कतारे,सब्र का दामन थाम के देख...
मिलता है जवाब हर सवाल का, यकीन खुद पर लाकर तो देख...
हौसले से जीती जाती है हर लड़ाई, हिज़ाब डर का उतार के तो फेक...
मुमकिन है सबकुछ इस सच के दामन मे..
बस एक पहला कदम बढ़ा के तो देख....
दूर से लगने वाली उन बड़ी बड़ी परेशानियों को छोटा होते तो देख...
बस एक पहला कदम बढ़ा के तो देख....
मुमकिन है सबकुछ अपना हौसला बढ़ा के तो देख...
डगमगाएंगे कदम कई बार पहले कदम के बाद...
हौसले की पकड़ रखना ...
पहले कदम की ताकत को अपने साथ रखना...
कुछ तो बात है उस पहले कदम मे..
बस एक पहला कदम बढ़ा के तो देख...
दूर से लगने वाली उन बड़ी बड़ी परेशानियों को छोटा होते तो देख...
बस एक पहला कदम बढ़ा के तो देख....

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24 AUG 2019 AT 19:49

अभी मुसाफिर हूँ मंज़िलों का,खबर कामयाबी की भी सुनाऊंगा...
थोड़ा धैर्य रख ऐ वक़्त,तुझे खुदको, बदल के भी दिखाऊंगा...
रुका नही अभी तक अपने इस सफर मे...
वक़्त मैं तेरे साथ ही हूँ, ज़रा बगल मे तो देख...
कस कर मुझे पकड़े रखना,गिरूं तो भी गिरने ना देना...
ए वक़्त मंजिलों के करीब तक मेरा साथ देना...
कुछ देर पकड़कर कुछ देर मुझे खुद चलने देना...
जानता हूँ मैं अपनी सच्चाई को,भरोसा है खुदपर...
बखूबी जानते हो तुम मेरी कमज़ोरी, ज़रा हंसा तो कर...
मुस्कुरा कर एक शब्द तो कह "ज़रा थोड़ा ओर सहन कर."
मैं बस फक्र से कह सकूं ये वक़्त ही तो मेरा था...
जिसमे गुज़रा मेरे दिन का सवेरा ओर रात का अंधेरा भी तो था...
अभी मुसाफिर हूँ मंज़िलों का,खबर कामयाबी की भी सुनाऊंगा...
थोड़ा धैर्य रख ऐ वक़्त,तुझे खुदको, बदल के भी दिखाऊंगा...

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16 APR 2019 AT 18:12

तलाश यू ही चलती रहती है...
हर मोड़ पर रुककर कुछ न कुछ कहती रहती है...
पुरानी तस्वीरों सी तलाश चलती रहती है...
उसमे गुम होकर अपनी पहचान करती रहती है...
तलाश यू ही चलती रहती है...
हर सुबह घर से निकलते हुए,मैं सोच मे पड़ जाता हूँ..
लोगों की भीड़ देख उसमे गुम हो जाता हूँ...
मशरूफ हो जाता हूँ मै, इस कदर जमाने मे...
खुद को ही खो देता हूँ , खुद को तराशने मे...
अंधेरों मे जुग्नूयों के साथ, अपनी परछाई तलाश लेता हूँ..
हर एक किस्से मे अपनी कहानी का, खूबसूरत अंत की नयी शुरुआत तलाश लेता हूँ...
कभी कभी आईना देख तलाश रुक सी जाती है...
मन की धुंदली सी सूरत भी मिट सी जाती है..
कभी कभी बच्चों की मासूमियत तो कभी बुजुर्गो सा तजुर्बा बन जाता हूँ...
कभी किसी प्रश्न का उत्तर तो कभी प्रश्न चिह्न बन जाता हूँ...
अंजान से कुछ ठिकाने बुला रहे थे मुझे जैसे...
बता रहे थे मेरे बुनियादी विश्वास को...
ये जो मेरी तलाश है,ये मेरे अस्तित्व का आभास है..
तलाश यू ही चलती रहती है...
हर मोड़ पर रुककर कुछ न कुछ कहती रहती है....

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10 APR 2019 AT 1:05

रात का सफर ,खिड़की वाली सीट साथ है...
आज हवा का झौका नही बंद खिड़की साथ है...
बंद खिड़की पहरेदार की तरह खड़ी थी...
हवा का शोर नही,विचारो की लहरे उफान पर थी...
वक़्त की शाख पर बैठे हुए कुछ लम्हे निकल आये...
कुछ पन्नो पर उतर गये, स्याही का रंग ले आये...
कुछ बेरंग से वापस उड़ गये..
फिर उड़ चला मै,परिंदो की तरह अपने आसमान मे...
उस हिज्र वाले मोड़ पर वस्ल का पता रख दिया...
ख्वाब को भी घर का अपना पता दे दिया...
उन बेरंग से लम्हो को फिर अपना पता दे दिया...
नींद ओर ख्वाब रात भर लड़ते रहे...
लखनवी अंदाज लिए ,पहले आप पहले आप करते रहे..
मेरी आंखों का पहले कौन मेहमान है...
बस हम इसी उम्मीद मे वहां खड़े रहे...
आँखे अभी भी खिड़की पर टिकी थी....
रफ्तार से पीछे जाते पेड़ कुछ तो बता रहे थे...
हम बस बैठे उसी उलझन को सुलझा रहे थे...
महताब फलक पर मद्धम रोशनी दे रहा था...
तिरछी नज़रों से चाँद मुझे ही ताक रहा था...
तख़य्युल बेनज़ीर थे मेरे..
उनको सोचकर ही शायद मुस्कुरा रहा था...
ये रातों के खयाल ओर खयालो वाली रात थी...
ये चाँद नही ये तो हमारी हमसे ही मुलाकात थी..
चाँद तो बस बहाना था ,हमे तो खुद को आईना दिखाना था...
मुस्कुराते हुए उस रात को ,अलविदा कहकर सो जाना था...
सफर था ये हमारा ,जिसमे हमे खुद के ओर करीब भी जाना था...

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7 APR 2019 AT 23:10

खुद के मुसव्विर की तलाश है हमे, खुद के वजूद की तलाश हमे...
रास्ता खुद ही नाप ले या मुर्शीद का इंतज़ार करे...
इस सवाल से उलझी पड़ी सभी सुलझी बातें..
इस आज़ार से कैसे निजात मिलेगी..
क्या आईने का रास्ता इतना अंजान है...?
या दरवाज़ा बोहोत बेईमान है..?

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31 MAR 2019 AT 8:38

हर इंसान की तरह हम भी ख्वाब का आशियाना सजाते है..
एक दूसरे के ख्वाब को भी परछाई की तरह अपनाते है..
कभी हमारे ख्वाब ही ,हमे परछाई भी बनाकर सजाते है...
परछाई साथ है हम भी साथ है...
कभी अंधेरों मे छुपकर ,कभी उजाले में साथ है..
थोडी नोकझोक ,थोड़ी लड़ाई से बच निकलती
कच्चे धागे का ,भरोसे स पक्का रिश्ता...
हिफाज़त से शुरू, परछाई स साथ देता ये रिश्ता...
भाई बहन का रिश्ता यूँ ही अनमोल नही है...
हर उजाले मे परछाई की तरह साथ निभाना..
अंधेरों मे रोशनी बनकर शामिल हो जाना...
अमलन छोटे कद की छोटी मुश्किलों से लेकर...
आकिबत की मुश्किलों का सामना बिना किसी गुरेज़ के कर जाना...
ढाल की तरह हिफाज़त कर लेना..
कभी लड़ते झगड़ते समय उनका भी हिसाब कर लेना..
कभी किसी शिक्षक की तरह ज़िन्दगी के पन्नो को समझाना..
अंधेरे ओर परछाई का मिलकर कुछ अलग अर्थ निकाल लेना...
कभी कुछ हँसकर ,कभी कुछ समझाकर...
मायूस चेहरे को छुपाकर ,एक दूसरे की ताकत बन जाना..
हिफाज़त से शुरू, परछाई स साथ देता ये रिश्ता...
भाई बहन का रिश्ता यूँ ही अनमोल नही है...
परछाई साथ है हम भी साथ है...
कभी अंधेरों मे छुपकर ,कभी उजाले में साथ है..

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29 MAR 2019 AT 21:30

अपना घर भूलकर नये शहरो से जुड़ती गयी आँखे...
हर अंजान मोड़ पर मुड़ता गया,खुद ही खुद को ढूंढ़ता गया..
सूरज की रोशनी अब नन्ही किरण सी लगने लगी...
हक़ीक़त का धरातल खो गया...
मैं फिर कुछ मायूसहो गया...
चाहत लेकर फिर निकल गया..
अरमानो के घोड़ो का फिर पीछा शुरू कर दिया..
जिंदगी जीना फिर शुरू कर दिया..
मंज़िल पता नही लेकिन फिर उसी रास्ते पर निकल गया...

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28 MAR 2019 AT 1:18

कला ने ही तो ज़िन्दगी दी है...
वरना ज़िंदा तो हम यूँ भी है..
कला गुरूर नही है किसी का...
कला तो जागीर है मन के स्वभाव की...
जो सब कुछ भूल कर बस ...
अपनी कारीगरी मे मस्त रह सके ...
ऐसा एहसास है वो..
हर किसी की अपनी कला है खुश रहने की..
हर कला का एक अपना मज़ा है ...
उस मज़ा का एक अलग नशा है...

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26 MAR 2019 AT 22:35

हवा तो चली पर पत्ता नही फड़का...
उसके लिए ना दुनिया थमी..
ना उसकी अपनी डाल झुकी...
ये घमंड नही था उसका...
शायद समय नही था उसका...
नया पत्ता भी अपनी जगह बनायेगा...
इन्हें बेआवाज़ मत समझो...
कोई बैचैनी तो होगी...
हर पत्ते की अपनी कहानी तो होगी...
समय आयेगा तब वो पत्ता भी हवा से झड़ जायेगा...

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