shwetankadityaa Jadaun  
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Joined 24 June 2018


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13 NOV 2021 AT 19:30

तेरी याद हूबहू चाय सी है
मुझसे छूटती ही नहीं ।

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13 OCT 2021 AT 12:23

जब आसमान अपने
श्वेत बादलों के टुकड़े
बेला के पुष्पों की भाँति
मेरे श्याम केशों में गूँथे
तब तुम किसी इत्र के जैसे
मेरे समीप रहना।

तुम्हारा स्पर्श ऐसा हो
जैसे किसी मतवाले झरने की
अविराम लहरों के वसन से
मेरी निर्जन देह को आलिंगित करना।

मेरे जीवन में तुम्हारे होने की
चमक वैसे ही हो
जैसे स्वयं चन्द्रमा अपने
दो टुकड़े कर मेरे दोनों
कर्ण पल्लवों को कुण्डलों से सजाए

तुम्हारा अस्तित्व मेरे लिए
उन पलाश के फूलों की तरह हो
जो मेरे सूखे पड़े
यौवन की माँग में खिल उठें

डाॅ अंकिता सिंह

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8 SEP 2021 AT 15:59

संरक्षित हैं तुमसे जुड़े सभी स्वप्न
जैसे बर्फ की चादर ओढ़े
कोई मृत शरीर ।

मेरे तन पर उगी नागफनियों ने
कुतर दिए हैं तुम्हारे
स्पर्श के सभी धागे।

जो तन तुम्हारी कस्तूरी से
महक उठता था
आज सड़ रहे हैं उस पर
बसन्त की तितलियों के मुरझाए शव।

अवसाद के पर्वतों को
तोडकर बहने लगी हैं
अश्रुओं की नदी
जिसमें बह गईं
तुमसे जुड़ी सभी उम्मीद।

डाॅ अंकिता सिंह

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29 AUG 2021 AT 18:30

हमारा मिलन
जैसे माचिस की पगडंडी
पर चलते हुए किसी स्वप्न का
रात्रि की चूनर ओढ़े
किसी तड़पती लौ को
अपनी बाहों में आलिंगित करना ।
जैसे किसी बसन्त का
सरसों के फूलों से
बर्फ की चादर ओढ़े
स्वयं को सड़ने से बचाती हुई
एक उम्मीद की माँग को भरना ।
जैसे सम्पूर्णता की खोज में
भटकते किसी पुच्छल तारे का
विशाल आकाशगंगा के
चरणों में अपना जीवन
समर्पित करना ।
जैसे सुगन्धित पुष्प के
होठों की पंखुड़ियों पर
किसी बहकती तितली का
चुम्बनों की बरसात करना ।
जैसे दो नदियों की
पारदर्शी निर्वसन देह का
एक दूसरे में समाहित हो
अपने एकल अस्तित्व को
बलिदान करना ।

डाॅ अंकिता सिंह

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10 JUN 2021 AT 9:50

पंक के गर्भ में मूर्क्षित कोई मृणाल थी पड़ी
पंकज के जन्म से हुई कोई स्तब्धता थी खड़ी ।

रमणीयता की क्रीणा देख प्रकृती विस्मय पड़ी
ममत्वता के रूप में हुई थी मेदिनी पुनः खड़ी ।

सर्वअवसादी रंग भी विलुप्तता को हैं खड़े
जीवन के नवयौवन में जो हर्ष के पग पड़े ।

काल की रात्रि के भी कदम हुए उखड़ खड़े
वीर जो मशाल ले अपने दिवस को चल पड़े ।

शिथिलता अब्धि में अखण्ड स्वप्न गिरि खड़े
जीवट के तृण भी अकर्मण्यता से जा लड़े।

रूपान्तरण प्रक्रिया में अंकुर से वृक्ष तन खड़े
उद्गम पावक प्रचण्ड जो पाषाण पाषाण से लड़े।

*डाॅ अंकिता सिंह*

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2 JUN 2021 AT 18:05

*शीर्षक*
*मीलों दूर से जब नन्हें जुगनुओं की बारात चली*



मीलों दूर से जब नन्हें जुगनुओं की बारात चली
हो कोई रौशनी की नदी तम को ललकार चली ।
पावक का तेज बटोर पवन की ले रफ्तार चली
विद्युत सी ले गर्जना उम्मीदों की एक ब्यार चली।

पाषाण तोड़ती जलधारा भी ले सरिता अवतार चली
कुसुम कोपलें कोमल सीं ये सख्त भँवरे डकार चली।
मामूली सी सुइयां भी जब रण में बन हथियार चली
लघु चींटी भी गज से लड़कर युद्ध की ले कमान चली ।

शिशु विहंग की रफ्तार जब व्योम को ललकार चली
माचिस की इक तीली तब महलों को कर खाक चली ।
गिरिराज हिमालय को अपंग की हिम्मत ललकार चली
कलमकार की कलम भी तब बनकर के कटार चली ।

*डाॅ अंकिता सिंह (श्वेतांकादित्या जादौन)*

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1 JUN 2021 AT 16:39

शीर्षक
पूर्णविराम

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28 APR 2021 AT 5:09

यहाँ यूं रक्त पर वक्त का कहर छोड़ कर
कहाँ चले ज़ब्त चैन कर शहर छोड़ कर
जो आइना तुम देखते हो पलंग तोड़ कर
वो भी पूंछे रूप तुझसे तेरा हाथ जोड़ कर

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7 MAR 2021 AT 22:12

कल जब मै कहीं खो जाऊँ
तो मेरी खोज मे प्रिय तुम
तब तक दहलीज मत लांघना
जब तुम खोज ना लो मेरी पायलों को
उनके टूटे हुए नुपुरों को
उन नुपुरों के खोए हुए संगीत को ।
मेरी टूटी चूडियों को
उन चूडियों के हर उस खनकते गीत को
जिसमें बस तुम्हारा ही नाम था ।
मेरी रूठी हुई बिंदिया की चमक को
जिसके प्रत्येक सूक्ष्म दर्पण में
बस एक तेरा ही दीदार था ।
मेरी शिरोधरा मे पड़ी रहने वाली
मोतियों की माला के हर बिखरे मनके को
जिसने तुम्हारे नाम का हर घड़ी जप किया।
यदि प्रिय तुम इनमें से कुछ भी न ढूँढ पाए,
तब दो मिनट का मौन धारण करना
मेरी यादों की अस्थियों को
अपनी ग्लानि के कलश में भर
गंगा विसर्जित कर देना।

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13 FEB 2021 AT 15:24

कात्यायनी


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