Shweta Manju Singh   (Shweta Singh "रुद्रा")
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Joined 30 January 2017


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6 OCT 2022 AT 2:34

वक्त को भी वक्त दो, कि तुम्हें वक्त पर वक्त दे सके,
वरना वक्त की खींचातानी में, वक्त गुज़र जाता है।

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4 OCT 2022 AT 20:42

इस बार दशहरा कुछ ऐसे मनाते हैं,
चलो ख़ुद के रावण को, हम ख़ुद हीं जलाते हैं।

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4 OCT 2022 AT 15:16

जलता रावण देख कर, मन में उठा सवाल,
कितने रावण फिर रहे पहन के आदम–खाल।

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26 JUL 2022 AT 10:20

ना इतना सताओ मुझे ऐ दुनियां वालों,
कि तेरी दुनियां से जाएं, तुम फूट–फूट कर रोओ,

जियो तुम भी और, जीने दो मुझे भी,
बेवजह मुझ पर तोहमत ना इतना लगाओ,

करम अपना तुम अब कुछ ऐसा करो की,
काटना है तुम्हीं को, कुछ अच्छा तुम बोओ...

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14 APR 2022 AT 14:19

समय का पहिया घूम चुका है, वक्त ने करवट ले ली है,
चेतना का बहाव चारों ओर सक्रिय है,
महसूस कर रही हूं बहती हवाओं का छू कर गुजरना,
सोए रूह को फिर से जगाना, कि जैसे करनी हों बातें कई सारी,
धरती–गगन, पेड़–पौधे, मानो सब तैयारी में हों,
किसी प्रचंड बदलाव के, जो बदल कर रख देगी,
युगों से चली आ रही चाल को...
चिड़ियों की चहचहाहट, हवा में झूमते पेड़,
तितलियों का आस–पास मंडराना,
धूल का उठता गुबार, रात की गहरी खामोशी,
दिए के फड़फड़ाते लौ, बादलों से गुजरता चांद,
उगते सूरज की किरणें, आसमां तक सर उठाए पर्वत,
मानों सब साक्षी होना चाहते हैं उस बदलाव की,
ब्रह्माण्ड का कण–कण चीख–चीख कर कह रहा है,
हमसब से कि अब संभल जाओ, चेत जाओ,
कर्म का लेखा–जोखा आरंभ हो चुका है,
बिगुल फूंक दिया गया है साम दाम दण्ड भेद का,
अच्छा बुरा सब वक्त की तराजू में तौला जा रहा है,
कि अब बारी है अपने–अपने हिस्से के,
विष–अमृत ग्रहण करने की....

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12 APR 2022 AT 16:06

मजहबी चाल समझती नहीं,
जातिय बवाल समझती नहीं,
एक सा लहू है हर इंसां के रगों में,
हरा और लाल समझती नहीं....

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12 APR 2022 AT 16:01

पीस दे तू आज मुझको, चूर्ण कर दे हस्ती मेरी,
भींच ले तू मुट्ठी में अब, भस्म कर दे बस्ती मेरी,
घुल जाऊँ तुझमें आज ऐसे, दरिया बनता सागर जैसे,
कर दे खाली आज मुझको, औकात कर दे सस्ती मेरी.

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18 MAR 2022 AT 13:01

मैल छुपा हो दिल में गर तो,
रंग कहां से भाए,
अब तो धो लो मैल दिलों के,
अब होली हो जाए...

इतनी परतें चढ़ी हैं दिल पर,
ईश नज़र ना आए,
सराबोर हो ’उनके’ रंग में,
अब होली हो जाए....

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8 MAR 2022 AT 13:38

स्त्री तेरी कैसी माया,
कोख में है ब्रह्मांड समाया,
कितनी पोथी पढ़ डाली पर,
तुझे कोई कहां पढ़ पाया।

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7 MAR 2022 AT 14:07

जब भी उतरती हूं ख़ुद की गहराई में,
भटकती हूं घुप्प अंधकारों के बीच,
और उसी अंधकार को अपना साथी बनाकर,
पूछती हूं रौशनी का पता, तब करती है इशारा,
उस अनंत की ओर...
जो युगों–युगों से दबा था, मेरे हीं भीतर कहीं,
उस ब्रह्मांड की पुकार, सुनी थी मैंने कई बार,
मुझे पूर्ण करने को, लगाई थी कितनी गुहार,
लेकिन मैं तो उलझी थी...
सत्य–मिथ्या, तर्क–वितर्क के मायावी द्वंद में,
आज उसी रौशनी की लौ में,
मैं करती हूं भस्मीभूत, इन सारे मायावी द्वंदों को,
और भरती हूं अपना रोम–रोम इस अलौकिक रौशनी से,
अब निखर जाऊं मैं ख़ुद भी, और निखर जाए ये जग भी...

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