श्वेत - लफ्ज़   (Shweta sharma)
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Joined 8 June 2017


Joined 8 June 2017

अपने ही बनाये घर में, अब आप नज़र नही आते,
पापा, शाम को लौटकर अब घर क्यों नहीं आते,
शोर में भी सन्नाटा सा पसरा रहता है,
अब पहले की तरह हमारे त्योहार भी नहीं आते,
महीने बितते जा रहे हैं, मगर मन उस एक रात मे जाकर अटक जाता है,
पापा, अब पहले की तरह हमारे दिन नही आते,
आपके खातिर थे सारे सपने हमारे,
अब पहले की तरह ख्वाब नही आते,
आपके कंधो के बोझ सारे ले लेना चाहती थी मैं,
आपको एक सुकूँ की जिंदगी देना चाहती थी मैं,
मगर ऐसे नही, आप यूँ तो ये जिम्मेदारियां छोड़ कर न जाते,
मैं घर में बड़ी थी, तो पापा आप हर बात मुझसे कर लिया करते थे,
बेटा "ऐसे नहीं, वैसे कर लेते हैं", मुझपर आप कितना विश्वास किया करते थे,
आज भी मैं सारी जिम्मेदारियां निभाने की कोशिश कर रही हूँ,
मगर पापा, मेरे कंधो पर अब आपके हाथ नज़र नही आते,
आपका होना ही हमारे लिए सुकूँ था,
अब दिन वो हमारे सुकूँ के नही आते,
आपकी छत्र छाया आज भी महसूस कर लेते हैं हम,
मगर पापा, अब आप नज़र नही आते।

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पापा, घर को हमेशा हर चीज से भरा हुआ रखते थे,
कभी किसी चीज़ की कमी होने नही देते थे,
आज आपकी कमी है पापा, ये कमी पूरी हो नही सकती,
जिंदगी आगे बढ़ेगी मगर, जिंदगी फिर से वो जिंदगी हो नही सकती,
हम किसी भी चीज की सोचते थे,
और पापा शाम को ले आते थे,
न जाने कैसे, वो हमारे दिल की बात जान जाते थे,
पापा, बहुत सख्त थे, मगर हमारी आँखों मे जरा से आँसू देख बेचैन हो जाते है,
वो जैसे हमारे चारों तरफ का कवच थे,
एक आँच हम पर पड़ने नही देते थे,
पापा, अपने संघर्षों की दुनिया से,
हमारे खातिर सुकूँ ले आते थे,
और ये सुकूँ सबसे बड़ा था,
कि पापा काम से लौटकर शाम को घर आते थे,
पापा, आपने हमें इतना मजबूत और काबिल बना दिया,
आपके बिना सोच भी नही सकते थे हम जिंदगी,
और आपने पापा, हमें आपके बिना जीना सिखा दिया।

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देखकर सफेद कपड़े में लिपटे हुए अपने पिता को,
मै उनके चरणों में जा पड़ी थी,
चीख कर रो भी न सकी,
आखिर मै घर में सबसे बड़ी थी।

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पापा, आपका जाना....काश एक सपना होता, और हकीकत कुछ और होती,
हर ढलते दिन के साथ वो आपका इंतज़ार,
आप घर आते, आज हमारी शामें कुछ और होती।
काश ये सब सपना होता और हकीकत कुछ और होती,
एक झटके मे सब कुछ पलट गया, कुछ समझ ही नही पाए हम,
आप थे, तो आसान थी जिंदगी,
आज आप होते, तो जिंदगी कुछ और होती,
काश ये सब सपना होता और हकीकत कुछ और होती,
जितना गर्व करते थे आप अपने बच्चो पर, वो सब कायम रहेगा,
हमारी मंजिलो पर, पापा आपका नाम रहेगा,
और जिस विश्वास से आप, जिम्मेदारियां मुझ पर छोड़ कर गए हो,
सब कुछ निभाऊँगी बख़ूबी मै,
मग़र, माँ के चेहरे की वो रौनक कहाँ से लाऊँगी मैं,
आज आप होते, तो माँ के चेहरे पर रौनके कुछ और होती,
काश ये सब सपना होता और हकीकत कुछ और होती,
पापा, आप होते तो आज हमारी जिंदगी कुछ और होती,
काश ये सब सपना होता और हकीकत कुछ और होती।।

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पापा, जरा सा ठहर जाते,
जो सपने देखे थे आपने, उन्हे पूरा होते हुए तो देख जाते,
पापा, जरा सा ठहर जाते।
अभी तो जीना शुरू किया था पापा,
मुकम्मल ख्वाहिशों की एक जिंदगी जी जाते,
पापा, जरा सा ठहर जाते।
आपके खातिर कितने सपने सजाये थे,
आपको सुकूँ की एक जिंदगी देंगे,
हमारे उन ख्वाबों के खातिर ही रुक जाते,
पापा, जरा सा ठहर जाते।
अब आप नही आएँगे, ये दिल जानता है,
मगर फिर भी, निगाहें दरवाजे पर एक बार ठहरती जरूर हैं,
हमारी आँखों में जो हर दिन का ये इंतज़ार था,
इस इंतज़ार के खातिर ही रुक जाते,
पापा, जरा सा ठहर जाते।
घर में सारी चीजें अपने ठिकाने पर है,
पापा, बस अब आप नही दिखते,
ये कमी कभी पूरी नही हो पाएगी,
ऐसा कुछ होगा, हमें जरा तो एहसास कराते,
पापा, जरा सा ठहर जाते।

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मम्मी,

जिन्होंने मुझे जिंदगी में बेहतर बनना सिखाया है, जिनसे सीखा है मैंने बहुत इमोशनल होकर भी बहुत स्ट्रांग होना,

जिनसे सीखा है मैंने हर परेशानी से मजबूत बनकर लड़ना,

जिन्होंने सिखाया है मुझे कोई कैसा भी हो, मगर सबसे अच्छा व्यवहार रखना,

जिनसे सीखा है मैंने अच्छी सोच रखना, और सदा उस पर कायम रहना,

जिनसे सीखा है मैंने रिश्तों को निभाना, सीखा है जिनसे गलती न होने पर भी झुक जाना।

जिनसे सीखा है मैंने सब कुछ अपने अंदर समा लेना, और समुंदर बन जाना।

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रहमतों का अपनी, इतना असर रखना,
शिवजी, मुझको "मै" ही बनाये रखना,
हर किसी के मान में, मेरा ये सिर झुकाए रखना,
हर कश्मकश समा जाये, दिल को मेरे समुंदर बनाये रखना,
ऊचांईयाँ चाहें मिल जाएं कितनी ही मुझे,
दिल को मेरे जमीं पर ही लगाए रखना,
न द्वेष भावना हो कभी मन मे किसी के लिए,
मुझे इतना सहज स्वभाव बनाये रखना,
किसी की पीड़ा देख, मन व्याकुल रहे,
दया-भाव हर किसी के लिए जगाए रखना,
रहमतों का अपनी, इतना असर रखना,
धूप मे किसीकी, मुझे छावं बनाये रखना।

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कितनी ही कोशिश करूँ, मेरी कलम के पसीने छूट जाएंगे,
मगर एक अंश भी मुकम्मल, वो मेरे पिता के लिए लिख न पाएगी,
प्यार, समर्पण, फिक्र, मेहनत, आदर्श और जिम्मेदारियां,
ये सब समा जाए इनमें, मेरी कविताएँ समुंदर होकर भी इतनी गहरी न हो पाएंगी।

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"वृद्घा आश्रम" ये शब्द है ही क्यूँ,
इस शब्द को तो होना ही नही चाहिए था,
इतना युवा है इस दुनिया में,
बुजुर्गों को बेघर होना ही नही चाहिए था,

आज़ादी के भ्रम में, सुकूँ का घर गवां देतें हैं,
छोड़कर उन्हें आश्रमों में, कैसे माँ- बाप के बिना ज़िंदगी बिता देते हैं,

उम्मीदें, इंतज़ार, नमी यही होता है उनकी आँखों में,
निर्जीव लाठियां थामती है उन्हें,
बच्चों के हाथों की मजबूत पकड़ होनी चाहिए, जिन कांपते हाथों में,

जिस जमीं पर उनके चरणों का स्पर्श रहता है,
जो घर उनकी आवाज़ों से गूंजता रहता है,
उनके आशीर्वादों का दरिया जहाँ बहता रहता है,
वो घर, घर नही होता, स्वर्ग होता है।

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कोई काम बिगड़ता नहीं मेरा,
मेरे सिर पर सदैव उनके हाथ होते है,
मैं कहीं भी रहूँ,
संस्कारों के रूप मे वो हमेशा मेरे साथ होते हैं,
मेरी आँख ज़रा नम भी हो जाए अगर,
तो आंसू उनकी आँख में बेशुमार होते हैं,
और मेरी मेहनत, सिर्फ मेरी नहीं है,
इस मेहनत के पीछे, माता- पिता के कई त्याग होते हैं।

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