अपने ही बनाये घर में, अब आप नज़र नही आते,
पापा, शाम को लौटकर अब घर क्यों नहीं आते,
शोर में भी सन्नाटा सा पसरा रहता है,
अब पहले की तरह हमारे त्योहार भी नहीं आते,
महीने बितते जा रहे हैं, मगर मन उस एक रात मे जाकर अटक जाता है,
पापा, अब पहले की तरह हमारे दिन नही आते,
आपके खातिर थे सारे सपने हमारे,
अब पहले की तरह ख्वाब नही आते,
आपके कंधो के बोझ सारे ले लेना चाहती थी मैं,
आपको एक सुकूँ की जिंदगी देना चाहती थी मैं,
मगर ऐसे नही, आप यूँ तो ये जिम्मेदारियां छोड़ कर न जाते,
मैं घर में बड़ी थी, तो पापा आप हर बात मुझसे कर लिया करते थे,
बेटा "ऐसे नहीं, वैसे कर लेते हैं", मुझपर आप कितना विश्वास किया करते थे,
आज भी मैं सारी जिम्मेदारियां निभाने की कोशिश कर रही हूँ,
मगर पापा, मेरे कंधो पर अब आपके हाथ नज़र नही आते,
आपका होना ही हमारे लिए सुकूँ था,
अब दिन वो हमारे सुकूँ के नही आते,
आपकी छत्र छाया आज भी महसूस कर लेते हैं हम,
मगर पापा, अब आप नज़र नही आते।
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