शुभम् ठाकुर"✍"   (लोरी'✍')
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Free writing style.....
Thought , saying & poem ...
Joined 25 August 2020


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Joined 25 August 2020

सबकी जरुरतों पर नंगे पाँव दौड़े हम, बारी
हमारी आयी तो लोगों की चप्पले टूट गई।।

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दुनिया कि रंगदारीयो के रंग से रंगे हुए हम,
जो कभी हुआ करते थे वो तो नहीं रहे हम,

माना दुनियां में सब अच्छे सबसे बुरे हैं हम

दिखावे के रिश्तों के सारे किस्से ही ख़तम,
अब जो जितना मेरा उसके हिस्से में उतने हम।

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बादलों के पास भी कहाँ ख़ुद का पानी हैं,
ये जो बारिश हैं किसी अपने कि मेहरबानी हैं।

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पतझड़ के मौसम में पत्तियाँ सूख जाती हैं,
दरारें जब चटकती हैं दीवारें टूट जाती हैं।
एक दौर था जब बारिशों में झूमता था बचपन,
सावन बीत जाता हैं कहाँ अब बरसात आतीं हैं।।

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ये जो किश्तों में बिक रहीं हैं खुशियाँ,
ये नींदो में ख़्वाब जैसी होतीं हैं, इन्हें
कितनी भी करलो कोशिश कैद करने की,
ना आएँगी पकड़ में ये भांप जैसी होतीं हैं।

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'First get an oath🎸
Then take a note'

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ईंट-ईंट जोड़कर चार दीवार बनायेंगे
बन गयी दिवाले तो छत भी ले आयेंगे,

सुना था बूंद-बूंद से सागर बनता हैं पर
बहती नदी से कहाँ घड़ा भी भरता हैं,

होगा परिवार तो छत भी काम आयेगी,
वर्ना संगमरमर पर भी धूल जम जायेगी,

ज़मी धूल कुछ तो यादों की छाप छोर जाएगी
आने वाली पीढ़ियों को अहमियत समझाएगी,

कि घर-परिवार घड़े में पानी की तरह होते हैं
टूट जाते हैं
अक्सर वो घड़े जो बिना पानी के भरे होते हैं।।

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कहीं चले कहीं गिरे कहीं रुके कहीं थमे यहाँ जैसे,
सफ़र बचपन से जवानी का ज़िंदगी की झांकी हैं।
सुख-दुःख की कश्मकश में इस सुहाने रंगमंच पर,
कुछ साल गुज़र गये कुछ और गुज़रना बाकी हैं।।

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शहरों की शोर-शराबे में कुछ इस तरह गुम हुए,
कि जो जाती थी गाँव को भूल गये उस डगर को,

उठ जाती हैं मज़बूरी बिस्तर से मेरे उठने से पहले,
भीग जाती हैं आँखे जब याद करते है उस पहर को

चटके बर्तन टपकती छत टूटी पलंग फटे धोती-कुर्ता
खेतों में उम्मीदों के हल चलाते माँ-बापू दोपहर को,

पूछते होंगे नदियां आँगन कहाँ गया वो बचपन
चरवाहों से चलतीं हवा ढूंढती हैं उस शहर को,

जहाँ फिर से खिलखिलाती मिल जाए मासूमियत
जहाँ भरकर खुशियो की झोली लौट आए घर को,

जो कभी निकले थे घरों से कमाने घर को।।

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टूटते अपनों के हौसलों को देखकर
निकले थे हम घर से कमाने घर को,

छत आंगन मिट्टी हवा पानी खुशबू
छोड़कर सब कुछ गाँव से शहर को,

कुछ इस तरह भागे सपनों के पीछे,
जैसे कश्ती का इंतज़ार हो लहर को,

यू तो सब अपने थे कहने को वहां पर,
ख़ुद में पनपते देखा अकेलेपन के ज़हर को,

ना नाम मिला ना पहचान ना सपनों का महल,
रोज़ टूटते देखा ख़ुद पे मजबूरियों के कहर को,

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