पतझड़ के मौसम में पत्तियाँ सूख जाती हैं, दरारें जब चटकती हैं दीवारें टूट जाती हैं। एक दौर था जब बारिशों में झूमता था बचपन, सावन बीत जाता हैं कहाँ अब बरसात आतीं हैं।।
ये जो किश्तों में बिक रहीं हैं खुशियाँ, ये नींदो में ख़्वाब जैसी होतीं हैं, इन्हें कितनी भी करलो कोशिश कैद करने की, ना आएँगी पकड़ में ये भांप जैसी होतीं हैं।
कहीं चले कहीं गिरे कहीं रुके कहीं थमे यहाँ जैसे, सफ़र बचपन से जवानी का ज़िंदगी की झांकी हैं। सुख-दुःख की कश्मकश में इस सुहाने रंगमंच पर, कुछ साल गुज़र गये कुछ और गुज़रना बाकी हैं।।