शुभम् निशु कौशल   (©®शुभम् निशु कौशल)
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Joined 16 May 2020


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Joined 16 May 2020

ऐसा है परिवेश यहाँ अब, सत्य श्रवण पर अकड़ जाते है,
राम की मर्यादा पूछो तो, राम भक्त ही भड़क जाते है,
व्याकुल हर सीत्कार की जिनको, गूंज लगे बस एक कोलाहल,
उनको गाजो बाजों में, भगवान सुनाई देते है,
रस्ते पर का एक भिखारी, उसमें राम नहीं दिखते जिन्हे,
उनको मंदिर के पत्थर में, श्रीराम दिखाई देते है,
उसने मूरत को पत्थर बोला,
वो है शायद राम विरोधी, या फिर शायद धर्म विरोधी,
या फिर मन को धर्म अधारा किया किसी ने कर्म हटाकर,
उस मन में बसे आकार का है, साकार विरोधी,
उसने मूरत को पत्थर बोला,
शायद राम यही चाहेंगे, आखिर वो मर्यादा पुरुषोत्तम,
मर्यादा से परहेज नहीं, न पूजा से है,
पर उससे है जो है केवल एक दिखावा,
या फिर मन का एक छलावा, तो,
इतना सब कुछ बोल गया वो,
अब क्या होगा, आग लगेगी जहाँ फुकेगा,
हुआ है ये अपमान राम का, लोग जलेंगे घर भी जलेगा,
पर इस अग्नि की लौ से शायद, राम जलेंगे या शायद न,
पर कहते है वो परमेश्वर, अधिकार उन्हीं को कण कण का,
इस राजनीति की रामायण में, जितने भी इंसान जलेंगे,
या जितने घर बार जलेंगे, धर्म जलेगा मर्म जलेंगे,
क्या उस कण में राम न होंगे, या शायद हाँ,
इतनी छुद्र सी बात कही तो, निष्प्रयोज्य झगड़ जाते है,
राम की मर्यादा पूछो तो, रामभक्त ही भड़क जाते है....।।

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इंसानो की दुनिया है, इक ढेला तेरे हाथों में,
उपरवाले देख करम का खेला तेरे हाथों में,

नींद के सपने जाग रहे हैं, बुझ गये जो भी आग रहे हैं,
महलों में सोने वाले भी, एक खिड़की से ताक रहे हैं,

कई क़त्ल सीने पर लेकर लिखी इबारत सफल हुई है,
समझ फेर में उलझी सफलता, यही सफल तो सफल नहीं है,

उजला चेहरा पेट के गंदे, इंसानों की फ़ितरत शातिर,
खोद रहे है अनजाने में, पाप के गड्ढे नस्ल की खातिर,

मेहनतकश से मेहनत का, अंजाम छीन मुस्काता चेहरा,
होगा दफन ऐसे जैसे न, होगा कोई गर्त यूँ गहरा,

लगता है जिनको कि दुनिया, उनके इशारे घूम रही है,
तेरे किये हिसाबों से, बेखबर जवानी झूम रही है,

उनके अहमी जज्बातों का, बेशी गर परिणाम न होगा,
सच्चे इंसानों की जुगत में, कैसे फिर भगवान क्या होगा,

सच्चा करो हिसाब, हे भगवन् ! सब मेला तेरे हाथों में,
उपरवाले देख करम का खेला तेरे हाथो में।।

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पूरी दुनिया में जो चलती, वो शायद "मतलब की हवा" है,
बेमतलब का लगाव करे जो, दुनिया में कोई शख्स कहाँ है,
खुद ही गिरकर खुद ही संभलकर, अंत में जाके पता चला है,
मैं हूँ खुद या इस दुनिया में, मेरे दर्द की, दर्द दवा है।।

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जो है घर में पास तुम्हारे, वो रिश्ते ही सस्ते में है,
बाहर जिनको अपना समझे, गम उनके बस्ते में है,
जिस रिश्ते को पाकर लगता है कि मंजिल मिल गयी,
उस मंजिल को ऐसा समझो वो मंजिल रस्ते में है।।

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इस जीवन को जीते जीते, इतना समझ आया इसका रुख,
हर दुःख के उस पार नया क्या, बस फिर से एक बार नया दुःख।।

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तुम्ही सच हो तो क्या, सब झूठ और बेकार की बातें,
मुझे भी कहनी करनी है, मेरे व्यवहार की बातें,
तुम्हारी सुन रहे है हम, हमारी भी सुनो गर तुम,
समझ पाओगे अपने दायरे के, पार की बातें ।।

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लगाव भी अब घाव है,
बस यही बदलाव है।।

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जीवन का हर एक वृतांत, आधा हो जाता है,
कितना भी साधो मन, बे-साधा हो जाता है,
नीति की नियत है या, नियमावली प्रेम की ये,
प्रेम सच्चा हुआ तो, कृष्ण और राधा हो जाता है।।

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वो हमारी जिंदगी से ऐसे, इकलौती चली गयी,
पूरा घर दिया रह गया, और रोशनी चली गयी।।

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जब भी चोटी पे होता है, गुरुर किसी सितम का,
तुम्हारे हाथ की एक चाय, हर गम खत्म मन का।।

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