पिता,
रंग - बिरंगी बर्नियों से, या उसमें छुपे उन कंचों से,
जो बचपन में जादू का पिटारा था,
जहां ख्वाहिशें बाद में, हाज़िरी का ज़माना था,
जब दुनिया सचमुच गोल थी,
हंसने की वजहें वाकई बेफ़िजूल थीं...
जहां हाथ रखने भर से, चीज़ें हो जाया करती थीं,
जेब में खनकती उन्हीं की चिल्लरें,
अमीरी की गिनती थी...
पिता के मुहल्ले में सिक्का हमारा था,
उस दौर के बाज़ार में, अपना ज़माना था,
हरे, नीले, पीले, रंगों से पिता, खुशियों की गुल्लक से
सराबोर करने वाले पिता,
या गुब्बारों से, कि सातवें आसमान में चढ़ा,
पर अंगुली थामे, दरिया के सिरा,
बसंत से पिता, मटमैला पहन, सतरंगी ओढ़ाने वाले,
या पिता जादूगर से, ख्यालों को असलियत बनाने वाले,
पिता ईश्वर से, उस चमकीले जुगनू से,
सब से थोड़े - थोड़े पिता,
अपना सब कुछ लुटाने वाले पिता,
शब्दों में कभी ना समाने वाले पिता..
रंगपिता, रंगपिता, रंगपिता !!!
शुभी पाराशर
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फूल, सावन, हवा सी लड़कियां,
बरसात की सौंधी फुहारों सी लड़कियां!
जो ब्याहके हो जाती हैं, थोड़ी सी बहुत दूर,
पीहर में, गुलाब की खुशबू छोड़ आने वाली लड़कियां!
ये वहीं हैं, जो कभी अलमस्त सी अंगड़ाई ले, सोया करती थीं,
’ज़रा देर तक’,
अब पूरे घर का होश संभालने निकली हैं,
"अनिश्चिता लिए,
अपने गंतव्य तक जाने को,
जो पिता के यहां, अधूरा माना जाता रहा है शायद!?
"सदियों से...
शुभी पाराशर-
मेरे हिस्से में मद्धम सूरज, गलते कागज़,
कढ़ाई की खुरचन या बजती चिल्लर ही आयीं!
आयीं डूबती शामें, सर्द रातें और गर्माती सुबहें,
कभी आया सुर्ख एकांत, कभी पथरीले रास्ते!
आए बेरंग मौसम, गिरते पत्तों को साथ लिए,
बदलते लोग, मिली दीवारों की नमी, सीढ़न लिए मोड़!
मिली कभी तीखी धूप या ढलता चंद्र,
पर मुझे मिला हर बार कुछ ना कुछ, बिन मांगे,
अनचाहा!!!
शुभी पाराशर
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सबसे भयावह क्या है!?
खाली हाथ घर को आ जाना या,
दूर जाना किसी उम्मीद में?
सबसे भयानक है,
सिमटे हुए हाथ लेकर लौटना..
कुंठित मन से!
शायद सबसे निराशाजनक...!
दुर्दांत!
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फ़क़त दुनिया भी, मशहूरों के साथ मशगूल है,
मेरे हालात यूँ ही गैरज़रुरी हैं!
मैं कुछ हैरान सा, परेशान हूँ...
खैर छोड़िए, ये तो आए दिन की बात है!
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ईश्वर ने किसी किसी को ऐश्वर्य दिया किंतु,
.. सुख नहीं!
किन्हीं को झोपड़ियाँ दीें,
उसमें ऐश्वर्यता का समावेश नहीं परंतु,
..शांति दी!-
बिटिया..!
कभी बैठ के सोचना, अपना अस्तित्व टटोलना!
कि कौन सा घर या जमीन है तुम्हारी?
जो नामांतरित कर दी गयी तुम्हारे भाई को!
या बैंक की कोई किताब, जिसकी हो तुम उत्तराधिकारी?
या एक कोना ही हो, जहाँ बैठ तुम लगा सको अनगिनत गप्पें!
थोड़ा रो ही लो चलो..
कभी फुरसत से सोचना, वो खिड़की अब भी तुम्हारी है क्या?
जहाँ से झांक तुम देखती थी और बारिश!
..या कोई पनपता पौधा, जिससे बतिया लो ढलती शाम को!
हो छोटा आँगन जिधर आता हो, धूप का टुकड़ा!
कुछ है क्या!?
वो दर्पण जिसके सामने, तुम बनाती हो अजीब मुँह,
क्या वो होगा तुम्हारा!?
या छुपकर छत पे जाके, तारे गिनना!
रहेगा हमेशा? ना कुछ है ना रहेगा..
..इसलिए खुद इतनी प्रबल, संबल, सुदृढ़, कुशल होना
कि रहो परिपूर्ण, निश्चिंताओं से भरी!
क्योंकि जब ब्याह दी जाओगी, 'वहाँ भी कुछ नहीं रहेगा तुम्हारा'...!!!
शुभी पाराशर
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...आख़िर कितनी ख़ूबसूरती काफ़ी है!?
मैंने सुंदरता की परिभाषा गोरापन ही जानी है!
...ये बात तो बरसों से चली आई है,
यूँ ही अब तक सबके दिमाग में नहीं छाई है!
सुडौल शरीर, तीखी आँखें, हर कोई इसका सानी है..
सांवली सूरत तो बचपन से 'कल्लो' नाम लिखवाई है!
...आख़िर कितनी ख़ूबसूरती काफ़ी है!?
नन्ही बच्ची की खिलखिलाहट किसी को ना भायी है,
रंग गेंहुआ देख, शादी की चिंता सताई है!
...क्योंकि सुंदरता का पर्यायी तो,
गोरापन और सफेदी ही कहलाई है..!!!
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