Shubhang Dimri   ('शुभी')
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कागज़ पे कलम से ख़ुद को बयां करते हैं,
वो समझते हैं हम शब्दों का कारोबार करते हैं.
Joined 7 June 2017


कागज़ पे कलम से ख़ुद को बयां करते हैं,
वो समझते हैं हम शब्दों का कारोबार करते हैं.
Joined 7 June 2017
8 MAR AT 10:12

सोचो तो ज़िन्दगी कुछ भी नहीं
बस उलझे हुए जूतों के फीते हैं

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11 FEB AT 23:46

तजरबा समंदर का इरफ़ान में रक्खा जाए,
मगर क़तरे को भी मीज़ान में रक्खा जाए।

साज़िश करें हवाएँ एक दीया बुझाने को,
क्यों नहीं एक सूरज म्यान में रक्खा जाए।

बेहद शोर शहर में करती है ये ख़ामोशी,
कह रही है जैसे मुझे ध्यान में रक्खा जाए।

है ये भी ज़रूरी कतरा दरिया हो जाए पर,
एक एक ज़र्रा भी पहचान में रक्खा जाए।

ये हवाओं का मिज़ाज बदलने लगा है अब,
रंजिश को भी आतिश-दान में रक्खा जाए।

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5 FEB AT 0:48

जब चीख उठे पीड़ा
मौन हो जाए संवेदना
जब निष्ठुर हृदय धड़कना छोड़ दे
रुक जाएँ माँ के नैनों से गिरते अश्रु
जब समाप्त हो जाए मेरे वधिक का ग्लानि भाव
शांत हो जाएँ ये दीवारें मेरी कहानी कहते कहते
जब पिता के काँधो से मेरी अर्थी का बोझ उठ जाए
नष्ट हो जाए भाई के मन से मेरी हर याद
जब उड़ जाए प्रेयसी की मेहंदी से मेरे नाम की महक
उतर जाएँ दोस्तों के मन से मेरी तस्वीरें
जब मेरी लिखी कविताओं की गूँज लुप्त हो जाए ब्रह्मांड से
तब समझ लेना तुम कि अंततः जा चुका हूँ मैं

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5 FEB AT 0:22

किसने बनाया क़तरा, दरिया नहीं जानता,
समंदर बनाने वाला दरिया नहीं जानता।

यही सदियों की रिवायत इस ज़माने की,
ख़ुद बन गया ख़ुदा, वो ख़ुदा नहीं जानता।

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26 MAR 2022 AT 16:25

शैतान को देखा था घर बनाते हुए,
एक बच्चा देखा हर ग्रन्थ जलाते हुए|

ज़हन में क़ैद है वो तस्वीर आज भी,
मेमार को देखा था शहर ढहाते हुए।

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17 FEB 2022 AT 10:11

जायज़ है इश्क़ में दिल का टूट जाना भी,
चाँद का आसमाँ से कभी रूठ जाना भी।

तुझे पता ही नहीं तू क्या था मेरे लिए,
हुआ ही नहीं मेरा ख़ुद से रूठ जाना भी।

सब ने देखा है मोती टूट के बिखर गए,
उस दिन हुआ एक धागे का टूट जाना भी।

जा मैं नहीं कहता तू ख़ुश हो जहाँ भी हो,
तूने देखा नहीं मेरी दुआ का रूठ जाना भी।

एक आईना था कभी इस कमरे में मेरे,
उसे देख हुआ पत्थर का लौट जाना भी।— % &

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10 FEB 2022 AT 23:22

ये दरवाज़ा देख रहो हो?
इसने कयी पतझड़, कयी सावन देखें हैं,
पर अब हल्की नमी से अड़ जाता है,
और खोलो तो ये चीख उठता है।
इसकी बाज़ुओं पे चढ़ अक्सर झूल जाते थे,
हो भीषण तूफ़ान, चाहे सूर्य उगलता आग,
ये दरवाज़ा अपने पीछे हमें महफूज़ रखता था।
वो दरवाज़े पे लगी खूँटी हमारे ख़्वाबों का बोझ उठाती थी,
कयी मर्तबा दरवाज़े पे जड़ा आईना होता था,
वो आईना जो हमें ख़ुद से रूबरू कराता था।
इसके चेहरे की झुर्रियों में यादें समायी हैं,
और कभी गर्द की पुरानी परत भी नज़र आ जाती है।
दरवाज़े से आती नए रंग की खुश्बू,
एक नया ज़िन्दगी का दौर लाती है।
हम भूल जाते हैं,
कि अब हमें पासबान बनने की ज़रूरत है।
और हम भूल जाते हैं,
की वो दरवाज़ा अब बूढ़ा हो चला है।— % &

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8 FEB 2022 AT 10:05

वो जहाँ के तजरबों से बिखरता चला गया,
टूटा इस क़दर, ख़ुद में सिमटता चला गया।

डुबाया इन अंधेरों ने, सूरज को समंदर में,
बस इक चिराग़ था, जो जलता चला गया।

यूँ तो सताया है बहुत उन परिंदों ने उसे,
वो आसमाँ था, बस बढ़ता चला गया।

जब भी हैं मेरी ख्वाहिशों को पर लगे,
मैं माथे पे मिट्टी को रगड़ता चला गया।

यूँ नहीं मिली बरकत ज़माने में किसी को,
बहुत तन्हा है वो भी जो बदलता चला गया।— % &

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29 JAN 2022 AT 22:43

बहुत तपना पड़ता है रूह को हक़ीक़त में,
यूँ ही ख़ुदा से किसी को क़ुर्बत नहीं मिलती।— % &

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29 JAN 2022 AT 11:20

चींटी लेकर के दाना मिज़ान पे आ गयी,
बिकने को मुंसिफ़ी दुकान पे आ गयी।

चाहता था नासमझ वो रिवायतें बदलना,
मर मर के हिम्मत भी मसान पे आ गयी।— % &

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