ताक पे रक्खे दीये इबादत में जलाता है,
ज़लील है वो छुप के लाशें बनाता है।
मज़हबी दीवारों से ये कैसी सियासत है,
जो इंसानों के लहू से रोटियाँ पकाता है।
जो मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारे बनाता है,
उसी के घर से नफ़रत का ज़हर आता है।
पहन के ज़ुब्बा ख़ुद को रहबर बताता है,
हर ज़ख़्म के पीछे उसी का हाथ आता है।
'शुभी' ये आग एक दिन उसे भी जलाएगी,
जो आग को बुझाने का बस ढोंग रचाता है।
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वो समझते हैं हम शब्दों का कारोबार करते हैं.
ये जो सन्नाटा पड़ा है, कोई आम बात नहीं
किसी ने चीख़ के दम तोड़ा है, ये रात नहीं।-
ये हार ऐसी कि जिसका नहीं बयाँ सा है
हर एक साँस में टूटा हुआ ज़माँ सा है
न पूछ कितनी अज़ीयत में दिन गुज़ारा है
कि जिस्म दुखता नहीं, रूह में फ़ुग़ाँ सा है
अजब ख़ुमार है आँखों में, नींद आती नहीं
सितारे देखते रहना भी इम्तिहाँ सा है
किसी को हाल-ए-दिल अपना कहें भी तो कैसे
कि हर किसी को यहाँ अपना ही एक गुमाँ सा है
वो बेख़ुदी है कि दुनिया का होश भी न रहा
ख़ुद अपने आप से मिलना भी अब गुमाँ सा है-
अजब है शहर कि हर शख़्स बे-निशान सा है
यहाँ जो भी नज़र आया, वो बे-ज़बान सा है
कहाँ से लाऊँ वो चेहरे जो मुझ को जानते थे
कि अब तो हर कोई इक अजनबी मेहमान सा है
ये किस यक़ीन से जीते हैं लोग दुनिया में
कि हर ज़मीन पे फैला हुआ, आसमान सा है
बहुत क़रीब से देखा है इस बदलते हुए वक़्त को
कभी मकान था अपना, कभी खंडहर का निशान सा है
ये किस का अक्स है टूटा हुआ मेरी आँखों में
कि आईने में भी चेहरा छुपा, हैरान सा है
ख़मोशियों में भी क्या क्या सवाल उठते रहे
कि दिल पे ज़ख़्म कोई ऐसा, बे-निशान सा है
ये शुभी दुनिया की फ़ितरत भी कितनी अजीब है
कि अपनी बात पे वो ख़ुद ही बे-ज़बान सा है
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क़त्ल कर चराग़ों का हवा रोती बहुत है,
यूँ ही नहीं ये घास ओंस से घिरी होती है।-
मुद्दआ सग़ीर पर सब कुछ लुटा दिया
इस नोचा खसोटी में मुल्क जला दिया।
आसमाँ आया था ख़ुद छाँव माँगने,
हमने आँखों से एक आँसू गिरा दिया।
फ़िर तय हुआ जो बुझना चिरागों का,
ख़ुद-ग़र्ज़ी में हमने एक मकान जला दिया।
वो कह रहा था एक दरिया को समंदर,
मैंने मुक़ाबिल में इक क़तरा उठा दिया।-
ताक पे रक्खे दीये इबादत में जलाता है,
ज़लील है वो छुप के लाशें बनाता है।
गुनाह आफताब के कुछ तो रहे होंगे,
यूँ ही नहीं वो चाँद से चेहरा छुपाता है।-
नफ़रतों की एक दिन इन्तेहा हो जाएगी,
डर है मुझे उस दिन फ़िज़ा भी मज़हबी हो जाएगी।
मस्जिद से जो गुज़रेगी वो मुसलमान कहलाएगी,
मंदिर को छूने वाली हिन्दू हो जाएगी।
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)-