Shubhang Dimri   ('शुभी')
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कागज़ पे कलम से ख़ुद को बयां करते हैं,
वो समझते हैं हम शब्दों का कारोबार करते हैं.
Joined 7 June 2017


कागज़ पे कलम से ख़ुद को बयां करते हैं,
वो समझते हैं हम शब्दों का कारोबार करते हैं.
Joined 7 June 2017
23 MAY AT 23:58

क़त्ल कर चराग़ों का हवा रोती बहुत है,
यूँ ही नहीं ये घास ओंस से घिरी होती है।

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27 APR AT 11:01

मुद्दआ सग़ीर पर सब कुछ लुटा दिया
इस नोचा खसोटी में मुल्क जला दिया।

आसमाँ आया था ख़ुद छाँव माँगने,
हमने आँखों से एक आँसू गिरा दिया।

फ़िर तय हुआ जो बुझना चिरागों का,
ख़ुद-ग़र्ज़ी में हमने एक मकान जला दिया।

वो कह रहा था एक दरिया को समंदर,
मैंने मुक़ाबिल में इक क़तरा उठा दिया।

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14 NOV 2024 AT 23:05

कष्ट दे कोई और ज्ञात ना हो
इतना तो कोई अज्ञात ना हो

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1 OCT 2024 AT 17:07

ताक पे रक्खे दीये इबादत में जलाता है,
ज़लील है वो छुप के लाशें बनाता है।

गुनाह आफताब के कुछ तो रहे होंगे,
यूँ ही नहीं वो चाँद से चेहरा छुपाता है।

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2 SEP 2024 AT 19:22

नफ़रतों की एक दिन इन्तेहा हो जाएगी,
डर है मुझे उस दिन फ़िज़ा भी मज़हबी हो जाएगी।

मस्जिद से जो गुज़रेगी वो मुसलमान कहलाएगी,
मंदिर को छूने वाली हिन्दू हो जाएगी।

(पूरी रचना अनुशीर्षक में)

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25 MAY 2024 AT 18:44

अनहद नाद!!

जब सपने टूटते हैं ना
शोर नहीं होता
शोर जो चीर दे ख़ामोशी को
वो शोर तब नहीं होता
बस निकलती है एक चीख अन्तर्मन से
जो कोई सुन नहीं पाता
वो चीख जो सम्भवतः ब्रह्मांड में विचरण करती है
एक वेदना जो जन्म देती है सहस्रों सम्वेदना को
और जोड़ देती है कई अनेकों हृदयों को
एक एहसास, एक ध्वनि जो सम्भवतः सब महसूस करते हैं
मगर कोई पहचान नहीं पाता
यही ध्वनि,
यही अनहद नाद आके जुड़ जाती है कुछ मनुष्यों से
और जन्म देती है हम कवियों को,
कवि यूँ ही नहीं उभरते हैं!

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22 MAY 2024 AT 18:19

एक समंदर को अपना आईना बना कर,
चल  दिया  रवानी में सब कुछ गँवा कर।

एक   कतरा  था  जो  सब  कुछ पा गया,
एक  सैलाब जा रहा सब कुछ डूबा कर।

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8 MAR 2024 AT 10:12

सोचो तो ज़िन्दगी कुछ भी नहीं
बस उलझे हुए जूतों के फीते हैं

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11 FEB 2024 AT 23:46

तजरबा समंदर का इरफ़ान में रक्खा जाए,
मगर क़तरे को भी मीज़ान में रक्खा जाए।

साज़िश करें हवाएँ एक दीया बुझाने को,
क्यों नहीं एक सूरज म्यान में रक्खा जाए।

बेहद शोर शहर में करती है ये ख़ामोशी,
कह रही है जैसे मुझे ध्यान में रक्खा जाए।

है ये भी ज़रूरी कतरा दरिया हो जाए पर,
एक एक ज़र्रा भी पहचान में रक्खा जाए।

ये हवाओं का मिज़ाज बदलने लगा है अब,
रंजिश को भी आतिश-दान में रक्खा जाए।

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5 FEB 2024 AT 0:48

जब चीख उठे पीड़ा
मौन हो जाए संवेदना
जब निष्ठुर हृदय धड़कना छोड़ दे
रुक जाएँ माँ के नैनों से गिरते अश्रु
जब समाप्त हो जाए मेरे वधिक का ग्लानि भाव
शांत हो जाएँ ये दीवारें मेरी कहानी कहते कहते
जब पिता के काँधो से मेरी अर्थी का बोझ उठ जाए
नष्ट हो जाए भाई के मन से मेरी हर याद
जब उड़ जाए प्रेयसी की मेहंदी से मेरे नाम की महक
उतर जाएँ दोस्तों के मन से मेरी तस्वीरें
जब मेरी लिखी कविताओं की गूँज लुप्त हो जाए ब्रह्मांड से
तब समझ लेना तुम कि अंततः जा चुका हूँ मैं

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