एक इश्क़ ऐसा भी हो "अनंत",
जहाँ होंठो से इज़हार ना हो,
बस नज़रों से इक़रार हो।-
जीवित हैं तो आस जगा,
बेहेन, तू अपना एक जगह खास बना।
चिंगारी को अब ज्वाल बना,
जग में एक आभास जगा,
हो जो लड़ना खुद से लड़,
खुद में वो विश्वास जगा,
तू अपना एक जगह खास बना।
व्यथाएँ, आये तो आये,
पर जरा डरें और घबरायें,
तूफान का क्या?आते है जाते हैं,
झंझावातो से डरना क्या,
इन सब का उपहास उड़ा,
तू अपना एक जगह खास बना।-
यह किसी भौतिक युग में,
कृषिका के समान प्रतीत होता,
चुम्बकीय शक्ति सा लगता हैं।
कहा जाता हैं, वस्तु जब ठंडी होती हैं,
तो वो कृष्ण दिखाई देती हैं,
इस का तात्पर्य ये भी हो सकता हैं,
की मेरी आशाएं मृत हो रहीं हो।-
जब कभी फिर प्रलय होगा,
तो मनु बचाएंगे शतरूपा, सप्तऋषि और वेद को,
उनको जो नए जीवन को उपजाएँगे,
दरकिनार होंगे तो सिर्फ प्रेम, और हमारे प्रेमपत्र।-
कुछ साल पहले तक,
मैं आजाद होना चाहता था,
आज, मैं उन बचपन के बेड़ियों को,
याद कर हँस-मुस्कुरा रहा हूँ।-
प्रेम संभावनाएँ नहीं ढूँढती,
बल्कि,
संभावनाओ में प्रेम होता हैं।
हमारी वो अंतिम वेदावली,
आकाश ने उल्लास मनाया था,
सारी रात बादल गरज़,
और बरस रहे थे,
संभावनाएँ थी बादल ना बरसते,
पर उनका धरती के प्रति प्रेम,
जिसने उन्हें बरसने पे विवश किया।
हाँ, प्रेम विवश करता हैं,
समर्पण करने को,
प्रेम में संवेदनाएँ होती हैं,
वेदावली कभी अंत नही हो सकता
पर नूतन अनुराग की उद्यम हो सकती हैं।
प्रेम संभावनाएँ गढ़ती हैं,
जीवन के प्रति संभावनाएँ।-
अपने अस्तित्व को ढूंढती,
अपनी कमी को तलाशती,
अपने अपनो के नज़रों में,
दबी हुई, संकुचित हुई,
घबराई हुई, डरी हुई,
देश में छुपती हुई,
बाहर सिर उठाकर चलने वाली,
अपने स्वरों से मिठास घोलने वाली,
संस्कृति से चलने वाली,
संस्कृति को संभालने वाली,
पर आज नीचे नज़रों से देखे जाने वाली,
अज्ञानता का गुण सूचक ,
मूरख समझे जाने वाली,
मैं हिंदी हूँ।
डरी हुई, सहमयी हुई,
मैं हिंदी हूँ।-
मन पर रक्खा ये भार क्या हैं?
मेरे जीवन का आधार क्या हैं?
विलुप्त होती आशाएं मेरी,
मौन होती व्यथाएँ मेरी,
दर्द से कराहता स्वप्न किसके हैं,
रक्तयुक्त लोचन किसके हैं,
जीवनरस का वो रसधार क्या है?
इस जीवन का आधार क्या हैं?
कुशल हूँ, अकुशल भी हूँ,
सफल हूँ तो असफल भी हूँ,
सुप्त हूँ, आसुप्त भी हूँ,
पथित हूँ, तो आश्रित भी हूँ,
फिर इस आशा-निराश का साक्षात्कार क्या हैं?
इस जीवन का आधार क्या हैं?-
कोई तुम्हें ख्वाईश कहें,
मैं तुम्हें आरज़ू कहूँ,
कितना दारोंदार हैं,
एक हसीन से शक़्स पर।-