जब हटाती हे रुख़ से वो नक़ाब धीरे धीरे
लगे, बादलों से निकलता हो चाँद धीरे धीरे
आँख भर के दीदार-ए-यार जो ना हो पाये
लगे, जिस्म से निकलती हो जान धीरे धीरे
बगैर उसके गुज़र रही हे ज़िंदगी इस क़दर
लगे, ढल रही हो ज़िंदगी की शाम धीरे धीरे
लगी जो आग शहर-ए-दिल में बुझाए न बुझे
लगे, जलते हों ख्वाहिशों के मकान धीरे धीरे
उजालों से अंधेरो की तरफ़ चल पड़ा कारवाँ
लगे, खत्म हो रहा हे जश्न-ए-चराग़ाँ धीरे धीरे
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