उचककर देखती है निगाहों से रुसवाई
आज दिल के दरीचे में ये जश्न कैसा-
दुर्गा_सरकार
दुर्गा काली तारा अपरंपार।
भगवती भयहारिणी संकट टार। -बरवैछंद
कलंकित चाँद मैं देखूँगा हर बरस,
बस मुझे बदनामी तुम्हारे नाम से मिले-
यूं मुसलसल ख्वाब में आना बुरा नहीं है
पर तुम्हारा अक्स भी, मुझको दिखाता आईना-
हे पूज्यवर! कर जोड़ करता वंदना मैं आपसे
करते रहो उपकार मुझपर करुणा ही के भाव से
आचार्य हैं, इक भाव है श्रद्धा का जुड़ता आपसे
संबंध तो रखिए इधर, गुरु के सरीखे बाल से-
लेखनी से रिसती है व्यथा भी कभी-कभी
हर बार प्यार से प्यार ही नहीं लिखा जाता-
सिलवटें, सन्नाटा और घुप्प अंधकार लपेटे हुए कमरा,
ठीक करता है सिकुड़न, चीरता है सन्नाटा
और देखता है अंधेरे के पार
जब थका हुआ आदमी आता है उसके पास
दो घड़ी को आराम के बहाने-
चलो बिखेरते हैं स्याहियां पन्नों पर,
बिखरते अश्कों से दिल भर गया अपना-
इसलिए सियाही ने कागज को रंगीन किया,
कि तुम्हारे आगे रोने की हिम्मत न थी मुझमें-
महामर्षपूर्णभावेन चण्डि निमिषमात्रे हि हरति दुर्गं
दुर्गेणाभितो भीतो भूत्वाहमद्य तामबलां शरणं प्रपद्ये-
नभ से झरते तुहिन कणों से
चाहे जितनी वसुधा सजती
पर अवमर्श हस्त को आर्द्रित
पल में सुंदरता हर लेती
झिलमिल से मोती समान थें
अपहृत अब दूर्वा के तन की
प्यास नहीं बुझती मन की-