न मेरी न तेरी, न इसकी न उसकी,
किसी की नहीं री दुनिया ।
मोल न जाने, किसीकी, मगर
पैसों की है री दुनिया ।।
न जन्म न मृत्यु, न पेड़ न पंछी,
न धरती गगन की री दुनिया ।
षड़तंत्र है उसका, कैसा न जाने,
चक्रव्यूह रचती री दुनिया ।।
न दोस्त न दुश्मन, न राजा न रंक,
नदी न पोखर की री दुनिया ।
चेहरा छुपा है, मगर,
अनजानों की री दुनिया ।।
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अजी सुन कर रूह की आवाज़ मेरी, कहाँ भागती हो?
हम तो बैठे हैं ज़माने से ज़ाम ले के, तुम शबाब से कहाँ भागती हो।
रूहानी दुनिया का ये भी तो एक तराना है, कभी हम भागते थे आज तुम भागती हो।
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खेलें मसाने में होरी , दिगम्बर खेलें मसाने में होरी ,
भूत-पिशाच बटोरी , दिगम्बर खेलें मसाने में होरी ,
लखि सुन्दर फागुनी छटा के , मन से रंग-गुलाल हटा के
चिता-भस्म भरि झोरी , दिगम्बर खेलें मसाने में होरी ,
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जो ढलती थी शाम तेरे आंगण में,
वो शाम अब ढल चुकी है।
जो बहती थी हवा तेरे आंगन में,
वो हवा अब थम चुकी है।-
तुम तो यूँ गई,
मानो पतझड़ में शाख से पत्ते गिर गए हों ।
तुम्हें क्या पता था,
पतझड़ के बाद बसंत भी आता है।-
आज ज़ुबाँ कांप रहे हैं,
हाथ थरथराते हैं।
आज मैं मुझसे पूछता हूँ,
क्या ये है मेरा देश?-
इस बार फिर मैं छठ में अकेला हूँ,
न छठ के गीत हैं कहीं,
न सड़क किनारे चुने की लकीर।
न आसमां में झूलते झालर है कहीं,
न सड़क किनारे प्रसाद मांगते फ़क़ीर।
न कोई फल लेने की होड़ है,
न सुप ढूंढने की जद्दोजहद ।
न दौरा उठाने की ज़िद्द है,
न घाट बनाने की फ़ज़ीहत।
शाम को लाल पाटे गगण में,
सूर्य को अर्घ देना।
सुबह घाट पर सूर्य का इंतज़ार,
फिर चाट गोलगप्पे खाने की ज़िद।
बड़ी याद आती हैं वो शाम वो सुबह,
क्योंकि,
इस बार फिर मैं छठ में अकेला हूँ।
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नदिया के एक छोर से निकला जो मैं दूजी के लिए।
नव नाविक थे,घोर अंधेरा पत्र के पतवार लिए।
प्रचण्ड भँवर बीच राह निकल गई,खूब करिश्मा।
ज्यों नाम लिया श्री राम का,श्रीचरणों में निवास के लिए।।-
राज़ दफ़न हैं,दफ़न हीं रहने दो। {2}
जो कब्र खुली तो,रूहें कांप उठेंगी।-