shubham shukla   (शुभम....🖋️)
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Joined 24 May 2018


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Joined 24 May 2018
3 JUL 2020 AT 7:12

हैं अभी भी वहीं थे जहाँ से चले
कोई साथी हो बिन साथी उससे भले

खाक ऊंची इमारत के ख्वाबों में क्या
है मकां मेरा मेरी हकीकत तले

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12 JUN 2020 AT 17:47

सच है की घूमता रहता हूँ मै अब भी तुम तक,
मुझे ये भी पता है तुमको खबर है इसकी

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6 JUN 2020 AT 22:36

यहाँ इतनी खामोशी है कि सांसे शोर करती है
तुमसे नजदीकियों की याद नैनीताल जैसी है

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30 MAY 2020 AT 15:48

इक आखिरी दीदार भी हिस्से नही आया
इस ओर से उस ओर जाने कब गए हो तुम

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28 APR 2020 AT 19:06

किसी को चाहने से पहले उसकी हद पूछेंगे हम
वो क्या है ना की हर दरिया समंदर तो नही होता

हमें मालूम है हर आशिक के दो चेहरे हैं लेकिन
छुपा किरदार ज्यादा दिन तक अंदर तो नही होता

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26 APR 2020 AT 10:03

आज बारिश हो रही थी तो हम पर फितूर चढ़ा था
भीगती फसल आंखों में नमी लिए कोई दूर खड़ा था
वजह पूछी जाकर मैंने मैं खुद भी उदास पड़ गया
वो बोला क्या खाएँगे बच्चे अगर अनाज सड़ गया

फसल अच्छी लगी तो बच्चो को कपड़े दिलाये थे
अभी कल ही वो साहब भी घर पैसे लेने आये थे
तो हमने कहा उनसे बस फसल कटने की बारी है
हम आकर खुद चुकाएंगे मेरी जो भी उधारी है

अभी कैसे लौटूं घर, किसको कैसे मुँह दिखाऊ मैं
मेरे अंदर इतना दुख है की कहीं डूब जाऊं मैं
मुझपे जिम्मेदारी की इक आशा रहने लगी है अब
मेरी छोटी वाली बिटिया पापा कहने लगी है अब

चलो अब घर चले ये जिन्दगी है रह लेंगे साहब
अभी तक सब सहा है फिर यही सब सह लेंगे साहब
उसके जाने पर लगता है खुदा था बात की जिससे
मुझे बारिश पसंद थी पर अभी नफरत है बारिश से

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20 APR 2020 AT 8:17

अभी तो बस चले हैं हम अभी तो राह बाकी है
अभी तक मुस्कुराये हैं अभी तो आह बाकी है

कोई मंजिल मिले तो ख्वाहिशों के रास्ते जाएं
किसी से इश्क करना है किसी की चाह बाकी है

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11 APR 2020 AT 9:20

कर लेंगे जुगाड़ खाने भर का साहब
पर अब शहर जाने से डर लगता है

पक्की दीवारे हों या घास के छप्पर
कैसा भी हो घर मगर घर लगता है

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1 APR 2020 AT 10:18

तमाम जगी हुई रातें और खाब लिए
मैं घूमता हूं एक इश्क का हिसाब लिए

मुझे वो इश्क जैसा मानता नही था अभी
उसे लगता था मुझे जानता नही था अभी
वो कुछ भी पूछे उसकी बातों का जवाब लिए
मैं घूमता हूं एक इश्क का हिसाब लिए

अकेला दीखता हूँ पर किसी के संग हूं अब
खुली किताब था पूरी तरह से बंद हूं अब
जुंबा पे चुप्पी अपनी कलम में रुआब लिए
मैं घूमता हूं एक इश्क का हिसाब लिए

अब से जानेगा नही कोई की किस हाल में हूं
मैं खुद को गुमसुदा बनाने के खयाल में हूं
अपने चेहरे पे मुस्कुराता सा हिजाब लिए
मैं घूमता हूं एक इश्क का हिसाब लिए

तमाम जगी हुई रातें और खाब लिए
मैं घूमता हूं एक इश्क का हिसाब लिए

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26 MAR 2020 AT 11:32

मोहब्बत हो तो जाने दो मोहब्बत सीख जाओगे
किसी के साथ जीना, हंसना, रोना सीख जाओगे

यहां सब अच्छा है तुम इस गलतफहमी में ना रहना
जो होगा सब उसे ही इक दिन खोना सीख जाओगे

तुम्हारे कमरे में गर शोरगुल रहता रहा अब तक
भरी महफ़िल में जाकर तनहा होना सीख जाओगे

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