Shubham Dey   (©शुभम दे)
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Joined 26 March 2018


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Joined 26 March 2018
14 APR AT 13:55

अब तो कोई नया किस्सा जुड़े मेरे अफसाने में,
सारी उम्र गुज़र रही मेरी बस ठोकरें खाने में।

याद आती है जब भी मुझे नासमझियाँ मेरी,
सोचता हूँ कि कितने अरसे लगेंगे बीता कल भुलाने में?

ख़ामख़ाँ अब मुझे ना धकेलो इश्क़ की रिवायतों में,
बोहोत वक़्त लगता है उन गलियों से आने जाने में।

मैं अब भी ज़िन्दगी कि उधेड़बुन में उलझा हूँ,
देखो तो लोग कितने आगे निकल गए ज़माने में।

अरे और भी तो काम होंगे उस उपरवाले को,
क्या सारी ताक़त झोंक दी उसने मुझे आजमाने में?

कबतक अंधेरों की चादर रहेगी मेरे छत पर,
अब तो थोड़ी रौशनी बिखरे मेरे आब-ओ-दाने में।

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5 APR AT 0:29

वो बचपन, वो आँगन,
वो दद्दा की बातें,
वो गोदी, वो आँचल,
वो अम्मा की यादें।

वो दर, वो दीवारें,
वो पेड़ों की साखें,
वो सूरज, वो चंदा,
जो झरोखे से झाँके।

आती है यादों में,
हर वो कहानी,
वो सड़कें, वो नाले,
वो कुएँ का पानी।

वो कागज़ की कस्ती,
वही खुशियाँ थी, बस थी,
जो छोड़ा वो बचपन,
वही दुनिया तो सच थी।

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2 APR AT 23:07

कुछ अलग सी चहक है उसमे,
और अलग सा एक खुमार भी है;
कहती है, मैं सबसे बोलती नहीं ज़्यादा,
पर अंदर दबी बदमाशी, बेशुमार सी है।

कपड़े वो थोड़े ढीले पहनती है,
पर अंदर बचपना बिलकुल चुस्त हैं;
वैसे तो वो काफी चंचल लगती है, पर
ख़ुद का ख्याल रखने में ज़रा सी सुस्त है।

उसको कभी थोड़ी ढील ना दो तो,
सबसे बात-बेबात लड़ने लग जाती है;
पर जब भी उसे अपने हाल पे छोड़ दिया,
तो मुँह फुला लेती है, बिगड़ने लग जाती है।

माना की वो सबसे अलग नहीं, पर
आँखों में उसके एक अलग सच्चाई है;
ख़ुद को वो परी तो नहीं कहती, पर
उसमें परियों सी खूबी है, अच्छाई है।

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24 MAR AT 23:09

उसने कनखियों से मुझे देखा,
मैं वहीं हार मान बैठा,
उसके कहे शब्दों को मैं,
खुदा के अश'आर मान बैठा,
उसकी दबी हुई मुस्कान को,
बिन समझे ऐतबार मान बैठा,
अपने डगमगाये खयालों को मैं,
उसके नशे का खुमार मान बैठा,
उसके उलझे हुए इशारों को,
मैं कैसे इज़हार मान बैठा,
अनकहे, अनसुने जज़्बातों को,
मैं कैसे प्यार मान बैठा!

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12 MAR AT 22:23

मन कितना भरा है?
मन कितना भारी है?
सबकुछ मन में टूट रहा,
मन में बस लाचारी है।

दर्द क्यूँ इतना सारा है?
क्या दर्द से दुनियादारी है?
दर्द में जीवन, दर्द का सपना,
बस दर्द के हम व्यापारी हैं।

जज़्बात यहाँ क्यूँ नीलाम हुए?
क्या इतनी सी हममें यारी है?
ख़ुद की चाहत, ख़ुद की खिदमत,
सोचो ये खुदगर्ज़ी है या खुद्दारी है?

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17 FEB AT 2:51

खूबसूरत हर मूरत को,
वो तेरा रूप क्यूँ कहते हैं?
तेरी मौजूदगी को वो,
सर्दी का धूप क्यूँ कहते हैं?

जो भी बात करे तुझसे,
तुझे बेहद खूब क्यूँ कहते है?
कभी सादगी, कभी ताज़गी,
कभी हसरते महबूब क्यूँ कहते हैं?

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14 FEB AT 1:08

कुछ ऐसा करूँ,
के नाज़ हो खुदपर,
किसी की आवाज़ बन सकूँ,
चाहे, बेआवाज़ रहूँ ख़ुद पर।

कुछ ऐसा बनूँ,
के दिन सँवार सकूँ,
किसी राहगीर के सिर का,
मैं बोझ उतार सकूँ।

कुछ ऐसा कहूँ,
के मन बहल जाए,
किसी शोक में डूबे साथी का,
जिससे दिल संभल जाए।

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18 JAN AT 0:23

इस दफा ये जो साल होगा,
आम सा नहीं कमाल होगा,
थोड़ा डर भी है कैसा हाल होगा,
ग़र कुछ ना किया तो मलाल होगा।

विषमताओं का कड़ा सवाल होगा,
पर अतीत से बेहतर हर ख़याल होगा,
कोशिशों का पैमाना भी विशाल होगा,
हाँ ये साल बेशक बेमिसाल होगा।

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8 JAN AT 22:31

ज़ुल्फ़ों की आड़ से यूँ नज़रें चुराना,
और नज़रें चुराकर दिल में बस जाना,
ये ग़र जादूगारी नहीं तो और क्या हैं?
खुदा की कारीगरी नहीं तो और क्या है?

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5 JAN AT 19:49

शब बरस रही है नूर बनकर,
और ज़हन में एक दिलनशीँ सा ख्वाब आया है;
आँखें बंद कर लूँ या देखता ही जाऊं,
मेरे दिल पे ये तस्वीर तेरी है कि माहताब आया है!

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