मेरे बिखरते हसरतों के ज़िक्र में एक तेरा ही नाम आया है
मेरी जुस्तजू के कत्ल का पैग़ाम आज सरे आम आया है
मैं आज भी मुन्तज़िर हूँ तुम्हारे लौटने का
के बाद तुम्हारे बेचैन इस क़ल्ब को न कभी आराम आया है
बस एक उम्मीद से ज़िंदगी तन्हा गुज़ारी है मैंने
मेरी रोती हुई हर शब में तेरे लौटने का ख़्याल तमाम आया है
ना तुम आए ना मेरी नज़रों को हासिल सुकूँ हुआ
मेरी तड़पती इन आँखों में हिज़्र का जाम आया है
मैं तेरे मिलने की फ़िराक में आज भी जिंदा हूँ
लगता है के हर सूं तेरी आमद का पैग़ाम आया है
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या ख़ुदा मेरी किस्मत का खरीदार तू लिख दे
जहाँ बिक सके जज़्बात वो बाज़ार तू लिख दे
मेरे दुपट्टे को क्यों दागदार बनाया था उसने
मेरी बदनाम हसरतों का किरदार तू लिख दे
मैं थक गई हूँ वफ़ा की भीख माँग कर ऐ ख़ुदा
बस देकर मुझे ग़म अश्कों का बौछार तू लिख दे
मुझे ग़म नहीं, जुदाई मुबारक हो उस शख़्स को
उसको खुशी और मुझे ग़म का कारोबार तू लिख दे
क्या कोई रुत-ओ-बहार नहीं मेरे नसीब में या रब
जहाँ अर्ज़ियाँ ख़ुशी की दे सकूँ वो अख़बार तू लिख दे
Shabana
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थी कहाँ फुर्सत की सब्ज़ मौसम सुहाना देखती
तेरी याद से गाफ़िल होती तो ज़माना देखती
बिना देखे तुझे इस दिल मे मोहब्बत बसी थी
तुझे गर देख लेती फिर न कुछ और दोबारा देखती
बीमार हो गयी हूँ दिल बहलाने की एक तस्वीर भी नहीं
हाल सुधर जाता जो नक्स ही तेरा पुराना देखती
Shabana
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ढूंढ रही बज़्म-तल्ख़ में कोई तुमसा नहीं मिलता।
चेहरा मिलता है तुम जैसा नहीं मिलता।।
सुकूँ तेरे क़ल्ब में होती है मेरी,
मगर तख्य्यूल के रोशन में वो जहाँ नहीं मिलता।
तू क़ामिल है मेरे शनासाई के हर कतरे में,
मगर शिफ़क़त-ओ-रिफ़ाक़त का मकां नहीं मिलता।
हाँ में कहती हूँ तू दस्तगीर-ए-ख़ुदा है मेरा,
कई मिलते हैं राह-ए-सफ़र में खुदा नहीं मिलता।
चर्चा आम हो गया है मसाफ़तों का मेरी
छुपा लूँ खुद को इस क़दर वो बयाबान नहीं मिलता।
shabana khatoon
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या ख़ुदा कुछ तो मेरी किस्मत में विशाल यार होता।
हम होते मुन्तज़िर उसके,वो मेरा तलबगार होता।।
जितनी भी होती हयात कसम से,उस मोहब्बत में
बाखुदा ये दिल ओ जान उसपर ही निसार होता!
राब्ते खत्म हो जाते, न रह जाती मोहब्बत उसके दिल में,
इस टूटे दिल में भी मगर वही एक सुमार होता।।
हम नमाज़-ए-उल्फ़त अदा करते, और
सज़दा रेज़ होते जिधर कू-ए-यार होता।
आता है ख़्याल मेरे ज़हन में, 'शबाना'
गर मर जाते मोहब्बत में तो मेरा भी इक मज़ार होता।
Shabana khatoon
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बाग-ए-बेहिश्त जिस्त को तमाशा बना गया।
नाज़ ओ नज़ाक़त से मेरी मैय्यत सजा गया।।
फिर करके तमाशा मेरे किरदार का उसने,
और चादर एक सफ़ेद में मेरा अक्स छुपा गया।
उल्फ़त के चरागों से रोशन सी ज़िन्दगी को,
उसके तल्ख़ लहज़े ने मेरा दिल बुझा गया।
खामियाँ ही बस तराशकर वफाओं में उसने,
मेरे आँचल को भी देखो दाग़-दाग़ बना गया।
करके मुझे रुस्वा ज़माने में इस क़दर,
के असरात-ए-वफ़ा में मुझको रुला गया।
shabana khatoon
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तेरे बज़्म-ए-तरब से होके ख़्वाब लौटे हैं।
लिपट कर तेरे सीने से नायाब लौटे हैं।।
वो आँखों की तिश्नगी वो लरज़ते होंठ,
तेरे असरात-ए-वफ़ा से आदाब लौटे हैं।
सिलसिला मुलाक़ातों से दिल कुशा हो गया,
के तेरे क़ल्ब की बेचैनियों का सैलाब लौटे हैं।
तेरी मोहब्बत में गिरफ़्तार मुजमिन हम हो गए,
जैसे क़ामिल मुदावा का हम शराब लौटे हैं।
तुमसे लिपटकर जो तुमको लिबास बनाया है,
सिमट कर बाहों में हम माहताब लौटे हैं।
क्या कहें तेरे इश्क़ का क्या मिशाल दें तुमको,
तेरी उल्फ़त की शनसाई का ख़िताब लौटे हैं।
वो जुम्बिशें लब कुछ कह रही थी 'शबाना',
उन खाली खाली निगाहों का जवाब लौटे हैं।
shabana khatoon
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तू याद का वो समंदर था जिसे दिल से न भुलाया गया।
बरसता रहा दिल मगर आँखों से न बहाया गया।।
तुम वाकिफ़ कहाँ थे मेरे रतजगे तन्हाई से,
मुद्दत गुज़ार दी जागकर वो शब न सुलाया गया।
आँखें पथ्थर की हुई दिल होता गया सख़्त,
खुद को मिटाते रहे याद में तुझको न मिटाया गया।
कभी हथेली में कभी ज़मीन पर लिखा तेरे नाम को,
खींच कर कलम से तेरे नाम को दोहराया गया।
उम्र गुज़िश्ता पर भी एक तुम ही याद आते रहे,
भूल गयी उम्र को कहाँ मगर तुमको भुलाया गया।।
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मैंने रोया है जी भर के तेरे जाने के बाद
बड़ी ख़ामोश सी रहती हूँ तेरे जाने के बाद।
तुझे क्या ख़बर मेरे तन्हाई के आलम की,
कभी तू भी कर महसूस मेरे जाने के बाद ।
ये ला-मेहदूद ज़िंदगी ग़र्क़ होकर रह गयी,
कोई इंसान-ए-क़ामिल नहीं तेरे जाने के बाद।
ज़िंदगी जैसे रात की तारीकी में ग़ुम हो गयी,
न हुआ कभी सहर तेरे जाने के बाद।
तुम्हारे होठों की लम्ज़ आज भी सांसो में है,
गोया की ये ताज़ा है तेरे जाने के बाद।
जज़्ब पैमा नहीं है अब मोहब्बत में मुझको,
मैं पर्दा-ओ-ख़ाक हो गयी तेरे जाने के बाद।
Shabana khatoon
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हर दिन मेरी हसरतों का ज़नाज़ा निकला।
पहले आरज़ू निकली फिर उसका खामियाज़ा निकला।
बहुत पहल से भी न बदली किस्मत मेरी,
मेरी दम-ब-दम ख़्वाहिशों का बस ज़नाज़ा निकला।
लुटी मेरी ज़िन्दगी लुटा जहान खुशियों का,
मोहब्बत की दास्ताँ में गुर्बत का ज़नाज़ा निकला।
जो हाथ उठाकर दुआ में रोती रही उम्र भर,
जैसे गालों पर अश्क़ों का ज़नाज़ा निकला।
काजल बह जाने की भी ख़बर कहाँ थी मुझे,
कैसे चश्म तर से मेरे दर्द का ज़नाज़ा निकला।
ये सफ़र मुद्दतों से तन्हा ही रहा,
बाद मुद्दत के भी ये सफ़र का ज़नाज़ा निकला।
है यही तकाज़ा मेरे उम्र-ए-गुज़िश्ता का,
बीते कल में भी बीता मेरा ज़नाज़ा निकला।
Shabana-
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