शशांक शुक्ला   (आग़ाज़)
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Joined 31 October 2017


Joined 31 October 2017

जगने वाली रात किया कर
यूँ बेबस हालात किया कर

सपने सारे, सच होते हैं
बच्चों जैसी बात किया कर

आँखों वाले वार दिखा कर
तू मुझ पर ज़ुल्मात किया कर

इश्तेहार न कर नेकी पर
बिन बोले ख़ैरात किया कर

अपनों से लड़ने पर प्यारे
ख़ुद से ख़ुद की मात किया कर

शर्मिंदा क्यूँ गांव शहर से
शहरों को देहात किया कर

बातें ख़त्म हुई जाती है
आज मिलन बे-बात किया कर

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करीबी वो मिरा इतना कि मेरा ख़ास सा लागे
ख़यालों का मसीहा है, मुझे फिर आस सा लागे

नसों में खूँ मिरा है वो, बसा है इस क़दर मुझ में
कहीं भी दूर रह ले वो मगर वो पास सा लागे

नदी है तू, रवाँ है तू, तग़ाफ़ुल सा कहीं मुझमें
भले दरिया भरा हो तू, मुझे ना प्यास सा लागे

पता चलता नहीं दिन का तिरे जब साथ होता हूँ
बिना तेरे हमें हर एक पल बन बास सा लागे

ग़ज़ल मेरी ज़मीं उनकी, वही अंदाज़ मिल जाए
मुतासिर हो गया "आग़ाज़" अब "विश्वास" सा लागे

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ग़ज़ल

अपनों को अंजान कहेगा
अंजानों को जान कहेगा

उसको कैसे इश्क़ कहें जो
इक-तरफ़ा फ़रमान कहेगा

वाइज़ बढ़कर आज ख़ुदा से
किस-किस को भगवान कहेगा

लोगों ठहरो, रिश्ते पनपो
खाली बन्द मक़ान कहेगा

आज विलायत गाने वाला
इक दिन हिंदुस्तान कहेगा

दिल में मत अरमान दफ़न कर
कोई क़ब्रिस्तान कहेगा

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ग़ज़ल(12122 12122 12122 12122)

बनी बनाई मिली जिसे है समझ न सकते कि मिल्क़तें क्या
बचा-बचा कर जमा किया जो पता उसे आज दौलतें क्या

सबूत होंगे ख़िलाफ़ उनके, मुकद्दमों में कुसूर मेरा
हमें हुई है तरह-तरह की अदालतों से शिकायतें क्या

सवाल के गर जवाब ना हो हुजूर पे अब हिसाब ना हो
जनाब के अब ज़बान पर है तरह तरह की वज़ाहतें क्या

न बोल सकते न देख सकते, ज़मीर सब का मरा हुआ है
सियासतों में बिके हुओं की ख़तम न होती, ज़रूरतें क्या

लगी बुझाना कभी न आया कि आग फैली शहर-गली में
जला जला कर ख़ुशी मनाते मिली हमें है विरासतें क्या

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ग़ज़ल (122 122 122 122)

वफ़ा का तरीक़ा समझ आ रहा है
मुझे हर इरादा समझ आ रहा है

पढ़ेगा न चहरे लिखेगा न शायर
क़लम का हवाला समझ आ रहा है

गुमाँ में तग़ाफ़ुल, ज़बाँ बेरुख़ी सी
लिहाज़ा न लहज़ा समझ आ रहा है

मदद को मिरे भीड़ कोई न आई
सफ़र आज तन्हा समझ आ रहा है

हुआ फ़ायदा जब खुशामद हुई है
हमें हर क़सीदा समझ आ रहा है

न अंजाम होता न आग़ाज़ होता
सफ़र का इशारा समझ आ रहा है

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ग़ज़ल
(बहर/वज़्न/मीटर: 1222×4)

सवालों में नहीं रक्खा जवाबों में नहीं रक्खा
कभी झूठे रिवाजों को किताबों में नहीं रक्खा

नुमाइश की नहीं ग़म की दिया इल्ज़ाम किस्मत को
मिला तुझसे मुझे जो ग़म अज़ाबों में नहीं रक्खा

नज़र में बंद मयख़ाने न हमने आज पहचाने
नज़र तिरछी सुकूं ऐसा शराबों में नहीं रक्खा

गुज़रती ज़िन्दगी का एक इम्तेहान ऐसा है
मुझे पूछा गया है जो, निसबों में नहीं रक्खा

छिपाए ना कभी चहरे कभी ना झूठ बोला वो
किसी अंदाज़ शैताँ का हिजाबों में नहीं रक्खा

बड़ी तहज़ीब से यारों ख़ुदा ने जिस्म बख़्शा है
बदन की खुशबुओं तक वो, ग़ुलाबों में नहीं रक्खा

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खाता जाए ठोकर प्यारा
बनता जाए खंजर प्यारा

ख़्वाबों में तू मिल लेता है
जी लेता हूँ मंज़र प्यारा

रास मुझे ना आती दौलत
दोस्त मेरा ज़ेवर प्यारा

भूल, धुआं काला छाया है
देखो नीला अम्बर प्यारा

इश्तेहार नहीं देता जो
कोशिश करता सत्तर प्यारा

होश कभी उससे ना मिलता
मयख़ाने को अक़्सर प्यारा

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ग़ज़ल
(बहर/वज़्न/मीटर:22 22 22 22 22 22 22 22)

किन किन से अब तुम रूठे हो, किस किस से नाराज़ हुए तुम
खोलो अपनी आँखे देखो, कितनों का ही नाज़ हुए तुम

आज ज़माना चुप बैठा है, खौफ़-ज़दा जो सब के सब हैं
हिम्मत से जो बोले हो तुम, गूँगों की आवाज़ हुए तुम

एक नहीं सौ ख़ूबी तुझमें, आज़ादी का दौरां तुझमें
बंद कफ़स के बंदी थे, उन पंछी की परवाज़ हुए तुम

लोग जहां पर बुझ जाते थे, लौ तुम्हारी बुझ ना पाई
पानी के क़तरों में प्यारे, शोलों सा अंदाज़ हुए तुम

मेरी जासूसी रग करती, मालूम तुझे नस नस मेरी
मेरी नब्ज़ पकड़ लेती है, कैसे यूँ नब्बाज़ हुए तुम

आज निशाना चूकेगा तू, थाम कमान न हाथ हिला यूँ
काँप रहा है तन तुम्हारा, कैसे तीरंदाज़ हुए तुम

सत्ता पर कुछ शेर लिखें है, बाग़ी रोज़ क़लम होती है
दौर नया दिखता है तुझमें, जैसे इक आग़ाज़ हुए तुम

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ग़ज़ल(वज़्न/बहर/मीटर: २२ २२ २२ २२)

इक हसरत का ख़ून हुआ है
अंधा फिर क़ानून हुआ है

गुमसुम था जो बोल उठा है
मंज़र अफ़लातून हुआ है

आज नपा तोला लिखता है
ग़ज़लों सा, मज़मून हुआ है

साड़ी की ठपकार लगी है
सीधा तब पतलून हुआ है

सोचा समझा फ़र्ज़ी लागे
बहका इश्क़, जुनून हुआ है

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ग़ज़ल(बहर: 1222 1222 1222 1222)

किसे है वक़्त का मालूम ये किस दिन ठहर जाए
पलों को काटना मुश्किल हुआ अब हम किधर जाए

कभी मिलते नहीं बन्दे मुझे, महफ़िल सजाने को
लगे गर बज़्म जो मेरी, चले फिर ता-सहर जाए

लगा है हुस्न पर इल्ज़ाम कितने क़त्ल का यारों
उसे जी भर निहारे जो, उसे बे-जान कर जाए

न इश्तेहार सच बोले न ये अख़बार सच बोले
मचा कैसा तमाशा है कि हर सच्चा गुज़र जाए

दिलों में छा गया जादू किसी दीदार का कुछ यूँ
नफ़ा-नुक़सान ना देखे मिरी जाँ इस क़दर जाए

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