बन के एक बेताब परिंदा..मैं उड़ने चली हूं
आज मैं खुद से..इश्क़ करने चली हूं
तोड़ के पैरों की बेड़ियां
रूख हवा का मोड़ने चली हूं
मैं खुद से..इश्क़ करने चली हूं
हौसलों की चुनर समेटे
समंदर को नापने चली हूं
आखों की काली काजल से
बदरी अमावस की छांटने चली हूं
चली हूं करने खुद की रचना
लहरों के विपरीत बढ़ी हूं
आसमां के सितारों को
कंधों पर सजाने चली हूं
बन के एक बेताब परिंदा
मैं उड़ने चली हूं..आज मैं खुद से इश्क़ करने चली हूं
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कितना कुछ मन में था
कुछ तुमसे कहना था...थोड़ा तुम्हें सुनना था
तुम्हारे गले लग रोना चाहती थी
तुम्हारा हाथ थाम... चंद कदम चलना चाहती थी
चाहती थी फिर से लाते वही candyfloss मेरे लिए
थोड़ा पूछते हाल मेरा कुछ किस्से अपने बयां करते
चाहती थी कुछ कहना तुमसे...
पर अब थक चुकी हूं
थाम लिया है अपने कदमों को और
ओठों को दे दी है चुप्पी मैंने
अब ना तुमसे कोई शिकायत होगी,
ना ही कोई नाराजगी
ना कभी टोकूंगी तुम्हें,
ना बिन मांगे कोई सलाह दूंगी
ना कहूंगी कभी कि उदास हूं मैं,
ना याद आने पर हक़ जताऊंगी
अपने सारे आसूं भी छुपा लूंगी
बहुत कुछ कहना चाहती थी तुमसे पर अब
अब तुम्हारे साथ रहने को मैंने खामोशी अपना ली है
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उगेंगे किसी रोज इन बादलों में
हम भी
कि तब तक के लिए सफर को
अलविदा कहते हैं...-
वो जो उसे हर बार छोड़ जाता है,
एक उसके ही लिए तू पूरी कायनात छोड़ जाता है।
तुझे रूला जो भुला बैठा है वहां,
क्या उसे भी तेरा हाल याद आएगा?
क्या हुआ हासिल तुझे बता इस मयकदे से जरा!
जिसे तू अपना समझता था...
हर बार उसे कोई गैर ले जाता रहा।
अब कहा चल रहा तू ये बता मुसाफिर,
तेरी आंखों में ये कैसा छलावा दिख रहा?
और ये जो यादें सताती हैं बता श्रुतिका...
क्या उसे भी तेरी याद आयेगी?
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मैंने शहर में बसता एक गांव देखा
हंसी - ठिठोली की शाम देखा
चाय की चुस्की पर...बढ़ती महंगाई के दाम देखा
बच्चों के खिलखिलाहठ संग..लहलहाती फसलों- सी
सहेलियों का मचलता राग देखा
पार्क में बैठे बाबा -दादाओं के ...यादों का पैगाम देखा
यारों की महफिल में...छलकता जाम देखा
मैंने एक रोज शहर में गांव देखा
सुबह की राम-राम से
चमचमाते जुगनुओं की शाम देखा
फूलों की बगिया में ...बारिश की बूंदों का
मोती सा चमकता अंजाम देखा
मैंने भागते शहर में एक नया आयाम देखा
मैंने शहर में बसता एक गांव देखा-
जागती आंखों से उसने, चंद सपने सजाएं हैं।
बन जाए पिताजी का गुरूर, नन्हें पंछी ने देखो पंख फैलाएं हैं।
अपने नाजुक कंधों पर, लेकर वो उम्मीदों का भार चला है।
छूने अपने हिस्से का, देखो वो आसमां चला है।
टूट कर बिखरे ना कहीं वो, सील कर अपने जो जज़्बात चला है।
लड़कर हर हालातों से देखो, पूरा करने अपने ख्वाब चला है।
घनघोर आंधी भी ना डरा पाए उसे, हिम्मत जो उसने ठान रखी है।
बन जाए पिताजी का गुरूर, नन्हें पंछी ने उड़ान भरी है।
_©Shrutika
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नहीं कर पाती गैरों की तरह शब्दों में खुद को बयां,
ना लड़ कर तुम पर हक़ जतला पाती हूं।
नाही तुम्हें अपना कह सकती,
नाही तुमसे दूर जा पाती हूं।
जानती हूं कोई वजूद नहीं मेरा तुम्हारे लिए,
फिर भी तुम पर प्यार लुटाती हूं।
नहीं हो तुम मेरे,
फिर भी, न जाने क्यों ही आश लगाती हूं।
कहना तो तुमसे... चाहती हूं बहुत कुछ,
ना जाने क्यों कह ना पाती हूं।
क्या सोचोगे तुम, इसी उलझन में,
खुद को बयां ना कर पाती हूं।
_©Shrutika
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तुम्हारे बाद मैंने...
अपना कुछ यूं हाल कर लिया,
जो भी मिला...
मुस्कुरा के गुफ्तगू दो - चार कर लिया।
आसुओं के समंदर को,
आखों में ही सुखा,
खामोशियों को अपना सच्चा यार कर लिया।
तुम्हारे बाद मैंने... अपना कुछ यूं हाल कर लिया।-
कह सकती हूं न तुम भी कान्हा की तरह हो।बिल्कुल छलिया।
अपनी सारी वेदनाओं को खुद में समेटे बस मुस्कुरा देते हो।
"दिल में दर्द छुपाएं, ओंठो पर मुस्कान सजाएं - हाए!"
(अनुशीर्षक पढ़ें)-
मोहब्बत नहीं ये यारों..
खुदा ने नई स्कीम ( योजना) लाई है
दर्द देने को उसने, नई तरक़ीब बनाई है-