'कागज़-कलम की मुलाक़ात'
कैसे याद किया इतने दिनों बाद, पूछ बैठा कागज़ कलम से ये बात,
यूंही तो नहीं किया होगा याद, ख़ास रही होगी कोई तो बात।
शायद मिले न हो कभी जज़्बातों को शब्द, और कभी शब्दों को जज़्बात,
खैर जो भी हो, है रिश्ता अपना ये ख़ास।
खैरियत का ऐहसास हो जाता है, कोई जब लिख कर जाता है,
आए हो तो ऐसे लौट न जाना, किस्सा एक लिख कर ही जाना।
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