जुखाम। छाती से मस्तिष्क तक का जाम।
आम जाम में पों-पों पी-पी की ध्वनियां सुनाई देती हैं। परंतु यह अत्यंत विचित्र जाम है; क्योंकि इसमें सुड़ सुड़ की झंकारें, खुल खुल की बहारें, छीकों की बौछारें सुनाई देती हैं।
इतने ठाट बाट से बारात लेकर इतनी लंबी अवधि तक कोई जाम पूरे देश में नहीं लगता जितना यह छह सात दिनों तक जमा रहता है।
यह जाम बड़ा ही पक्षपाती होता है, सब वर्णो को निकलने देता है पर वर्ग के पांचवें अक्षरों से दुश्मनी पाले बैठा रहता है। कोई इस जाम में फंसा हो तो बोल कर देखिये ञ, ङ, ण, न....। बोल पा रहे हैं...??
दरअसल इसके बड़े फायदे भी हैं, इसकी बदौलत व्यक्ति खुद को वॉइस आर्टिस्ट,अस्थमा का मरीज,बुखार, टाइफाइड या कोरोना का मरीज भी बता सकता है। रोने का नाटक कर पसंदीदा कार्यों की सिद्धि कर सकता है। घर के कामों से, ऑफिस के कामों से छुट्टी ले सकता है।
गिरगिट तो चलो बस रंग बदलता है; पर यह तो रंग रूप दोनों बदलता है कभी हरा, कभी पीला तो कभी सफ़ेद। कभी गीला कभी ठोस तो कभी गोंद जैसा..।
पहले दिन इसे मेहमान की तरह इज्जत के साथ रूमालों में सहेजा जाता है, लेकिन अगर ज़्यादा दिन रुके तो रूमाल अपनी अकड़ पर आ जाता है और फिर इसका दिवाला बड़ी बेरहमी के साथ निकला जाता है।
अगर आप इस विचित्र जाम में फंसे हैं तो घबराइए नहीं बेधड़क इसके फायदे उठाएं और चंद दिनों में छिडक़-छिडक़ कर धक्के मार कर निकालें।
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वो आभूषण पहना करता था, ना सजता ना ही संवरता था ।
अप्रतिम स्वभाव से श्रृंगारित, एक काव्य शास्त्र सा जँचता था।
करुणा रस का काजल उसकी, आंखों से यूं ही पिघलता था ।
आश्चर्य कतार सिलबट बनकर, उसके मुखड़े पर फबता था ।
कुछ खो देने के भय के संग, वह शांत भाव से शीतल था ।
यह अटपट सा संयोग सदा ,अद्भुत रस बनकर दिखता था ।
केसरिया रस शक्ति बनकर, नाट्यों के गीत सा लगता था ।
हर आभूषण का वह निचोड़, जीता- जगता साहित्य सा था।-
काश! बंधन मात्र शब्दों में ही होता,
और किसी काव्य में सिमट कर रह जाता।
राग सिर्फ संगीत के स्वरों में ही होता,
तो क्रोध अर विप्रलंभ पनप ही नहीं पाता।।
वियोग मात्र एक स्वप्न का हिस्सा होता,
जो नींद से उठते ही दूर चला जाता।
चिन्ता बस दर्शन शास्त्र में ही होती,
अन्यत्र तनाव का नाम ही नहीं आता।।
कलंक का मिलना सिर्फ चाँद पर होता,
तो आज हर चरित्र सुरक्षित हो जाता।
मद का मिलना गर कुंजर में ही होता,
तो आज हर कोई मार्दवी कहलाता।।
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तुम न जाने क्यों समय पर खो जाते हो?
लौट कर बे-समय पर बाद में आते हो।।
क्यूँ विवेक ?
तुम सही समय भूल क्यों जाते हो?
जब मैं अमर्ष के कारण तिल-मिला रही होती हूँ।
तब तुम मुझे समझाने वहां भी नहीं पहुंच पाते हो।।
क्यूँ विवेक ?
तुम मेरा बुरा जानबूझ कर तो नहीं चाहते हो?
जब मैं दस लोगों के आगे किसी लड़के से बतियाती हूँ।
तब तुम भी वह तमाशा देखने क्यों नही आते हो।।
क्यूँ विवेक ?
तुम अपने बिना मेरा हाल जानना नहीं चाहते हो?-
जब चाय पीते पीते,
दिल में कोई ख़्याल आए।
और
उसको पीने के बजाए,
उसको जीने के बजाए,
लिखने बैठना पड़ जाए।
उस क्षण कि व्यथा कथा,
तुमको कैसे सुनाएँ??
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मुझे तुम्हारा आगम चाहिए था ।
तुम आदेश की तरह पहुँचे थे।।
मुझे तुम्हारा समागम चाहिए था ।
और तुम......
फूट डाल कर आ पहुँचे थे।।
मैं अमीशा अमी+ईशा था।
सब प्रकृति-भाव सा सरल कहते थे।।
इति+अत्र सा सुंदर सरस था ।
और तुम....
इत्यत्र में मुझे बदल बैठे थे ।
मुझे मित्रवत् आगम चाहिए था ।
हाँ एक-आध का लोप कर सकते थे।
पूर्व और पर का साथ चाहिए था
और तुम.....
शत्रुवत् आदेश बनकर पहुंचे थे ।।-
ये लाइक नही,
लायकात है।
लाईक करो तो,
तुम भी लायक।
हम भी लायक।।
वरना सबरे ही,
नालायक।।
जितने लाईक,
उतने लायक।
ना समझे तो,
ना ही लायक।।-
कल रात कमरे में एक रौशनी आ रही थी।
उठ कर देखा तो.... चाँदनी,
छिड़क छिड़क कर मुझे उठा रही थी।।
कहती...आज लौट आई हूँ,
बरसों बाद तेरे आँगन में।
उठ कर देख तो....और लिख दे।
कुछ तुका-बेतुका अपने फसानों में।।
कब से सो रही थी तू रोज़ाना रातों में।
उठ कर देख तो.... अपनी खुशी,
जो इकट्ठी हुई फरियादों में ।।
सुना है ....बड़ा मुश्किल है,
पूर्णिमा का चाँद पर आज के ज़माने में।।
उठ कर मिला तो...चेहरा उसका,
गर दिख जाये फर्क मिलाने में।।-
मैं अभी कुछ लिखना नहीं चाहती।
क्योंकि वो लिखा हुआ ...
मुझे ही दुख पहुंचाएगा ।
मुझे ही रुलाएगा ।।
फिर फट कर कागज में ।
किसी सड़क पर पड़ा पाएगा ।।
मैं अभी कुछ लिखना नहीं चाहती।
क्योंकि वो लिखा हुआ ...
मेरा आत्मसम्मान गिराएगा ।
मुझे आत्म ग्लानि दिलाएगा ।।
मुफ्त ही मेरे भविष्य में ।
आफत भर कर लाएगा ।।
में अभी कुछ लिखना नहीं चाहती ।
क्यूंकि ऐसा नहीं है कि......
मेरा हाथ चल नहीं पाएगा।
मेरा कलम ढूंढने पर मिल नहीं पाएगा।।
या मेरे आंखों का पानी देखने में।
अड़चन बन जाएगा।।
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