निंदिया मांगे
नेत्रों की दक्षिणा
(अनुशीर्षक)-
कोई क्षण
घृणित या तिरस्कृत नहीं होता
वेदना से प्रेम करिए
घृणित को अंगीकार ... read more
सुनो प्रिय!
ठहरो तनिक!
शिखर समान
सिक्त श्रावण में
कृतघ्रते परिक्रमा करते हैं
ध्वस्त अग्निशालाओ की आज हम
किन्तु स्मरण रहे:-
यदि
परिक्रमा बेला में
इन ध्वस्त अग्निशालाओं के प्रति
मोह जाग्रत हो जाए तुम्हारे हृदय में
तत्क्षण
मेरे पगों के सिंदूरी महावर को
सिक्त सौन्दर्य के वैभव का
अंजन बना जाना तुम
और
नत हो जाना स्वयं
ध्वस्त अग्निशालाओं के प्रति।-
तुम्हारे
हृदय की देहरी लांघते हुए
अपने आल्ते से सने पदचिन्हों की मोहर
मैं अश्रुओं से प्रक्षालित कर आयीं हूं
अब तिरती फिरती नहीं रहती
तुम्हारे हृदय की मांसपेशियों में "मैं"
अब तुम्हारा हृदय
पहिले की ही भांति
ज्यों-का-त्यो हो गया है!
मेरा अस्तित्व भी कभी था
इसका अता-पता भी न रख छोड़ा मैंने तो
सहज-सुलभ होगा तुम्हारा हृदय अब तुम्हारे लिए।
तुम देखना!
कहीं तुम्हारे हृदय से मिटे पदचिन्हों से
चिरस्त्रोता नदी की धार तो न बह निकली?-
मेरी सिमटी-बिखरती जिह्वा भी
थक-हार चुकी है फुदकते-फुदकते कहीं को।
मुझ वाचाल का कंठ भी
अपनी चीखें ही अवरूद्ध करने लगा है अब तो!
उजियार की देहरी
लांघ-लांघ हांफ भागी ही फिरती मैं तो!
मेरी विक्षिप्तता भी,
नग्न हो चुकी है सयाने शब्दों के समक्ष देखो तो!
कह
विधाता!
वो कौन से,
अमावस का अंधियारा होगा,मेरी जीवनी में अब तो,
शवाच्छादन करेगा प्रतिनिधित्व, मेरी देह का जिस मुहुर्त को!-
हो प्रफुल्लित
रंगदारी भी दी थी यम को मैंने!
यम हो सिफर-
वास्तविक अनुभूतियों का,
समापन कर गया मेरी देह की।
अब-
चिर-समाधि चाहती है,
चिरंजीवी सठीयायी आत्मा भी मेरी।-
मैं
गुंझर सी वाचाल हूं!
मैं चाहती हूं-
मौन अब अनभिज्ञ ही रहे,
मेरे हाहाकारी क्रंदन से।
क्योंकि.....
अपनी सतत ध्वनियों की देगची से,
अछोर शब्द परोसती ही रहूंगी 'मैं' मौन को।-