अश्रु नेत्रों से
झर-झर रिमझिम
तो कभी स्वयं को ढक हो ओझल
कर रहे थे अमोद-प्रमोद संग लुका-छिप!
हृदय खिलखिला बोला:
ओ!
कृष्ण मेघ सी नेत्रों वाली
मैं तो पूर्णरूपेण जलमग्न हूं।
तो.....तो तुम भी
नेत्रों के श्वेतपटल को
कभी बूंदा-बांदी तो कभी
अतिवृष्टि से न करना शून्य-रिक्त!-
कोई क्षण
घृणित या तिरस्कृत नहीं होता
वेदना से प्रेम करिए
घृणित को अंगीकार ... read more
अंततः
प्रमाणित मनोचिकित्सक ने
प्रमाणित कर ही दिया
कि.....मैं..मैं
पूर्णतया विक्षिप्त हूं।
उसे भय था
कि
कहीं यह विक्षिप्त
अपनी सुघड़ता से
मेरे प्रमाणित प्रमाण-पत्र
सर्वविदित न कर दे!-
मेरी सिमटी-बिखरती जिह्वा भी
थक-हार चुकी है फुदकते-फुदकते कहीं को।
मुझ वाचाल का कंठ भी
अपनी चीखें ही अवरूद्ध करने लगा है अब तो!
उजियार की देहरी
लांघ-लांघ हांफ भागी ही फिरती मैं तो!
मेरी विक्षिप्तता भी,
नग्न हो चुकी है सयाने शब्दों के समक्ष देखो तो!
कह
विधाता!
वो कौन से,
अमावस का अंधियारा होगा,मेरी जीवनी में अब तो,
शवाच्छादन करेगा प्रतिनिधित्व, मेरी देह का जिस मुहुर्त को!-
हो प्रफुल्लित
रंगदारी भी दी थी यम को मैंने!
यम हो सिफर-
वास्तविक अनुभूतियों का,
समापन कर गया मेरी देह की।
अब-
चिर-समाधि चाहती है,
चिरंजीवी सठीयायी आत्मा भी मेरी।-
मैं
गुंझर सी वाचाल हूं!
मैं चाहती हूं-
मौन अब अनभिज्ञ ही रहे,
मेरे हाहाकारी क्रंदन से।
क्योंकि.....
अपनी सतत ध्वनियों की देगची से,
अछोर शब्द परोसती ही रहूंगी 'मैं' मौन को।-
मैं
कौन हूं ?
और स्वयं में क्यों नहीं हूं ??
तो कहीं ऐसा तो नहीं
कि
मैं नगण्य हूं!
तो फिर मेरी यह प्राणहीन नगण्यता
क्यों अभिलाषित हो रही है?
कज्जल-पुते डगर से होकर
तुम्हारे मस्तिष्क से तुम्हारे धंसे हृदय का सेतु
स्वेच्छा से पार करने हेतु!-
मैं
विक्षिप्त जो
पुनर्जीवित करती रहती हूं
शनै: शनै:
हृदय को तुम्हारे।
जिससे..
तुम्हारे हृदय का प्रेम
मेरे प्रति पुनः मृत हो जाता है।
और
मैं विक्षिप्त
तुम्हारे प्रेम में
पुनर्जीवित हो उठती हूं।-
प्रेम में पड़ते ही
मैं बेहिचके बोल पड़ी,
प्रेम है प्रलय बाबू आपको भी!
प्रलय बाबू-
पहिले मौन फिर महामौन हुए
और मैं.....मैं तदोपरांत भी
बेहिचके बोलती ही रही
सिसकी रोक कंठ,
निर्रथक हंसी-हंसती ही रही व्यर्थ सी!
और कल
भविष्य के भावी क्षणों में:
मैं नहीं रहूंगी,
न यह सृष्टि ही होगी।
सर्वत्र पल्लवित
प्रलय बाबू का वह नाद होगा,
जो जन्मेगा बेहिचक प्रेम के कारण ही!-
हां हां हां...
मेरे प्रेम की स्थिति अति विचित्र है
मैं तुम्हारें हृदय से
स्वयं को निष्कासित करवा सकती हूं!
परन्तु-
अपने हृदय से तुम्हें धुत्कार नहीं सकती!
हां हां हां...
मेरे समाविष्ट
और
तुम्हारे निष्कासित के मध्य
सदैव ही विराजित रहेगा,
हमारा अति विचित्र सा यह प्रेम!-