Shridhar Acharya   (Shridhar Acharya)
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Poet Writer Thinker
Joined 17 May 2017


Poet Writer Thinker
Joined 17 May 2017
26 APR 2021 AT 21:27

/// जिन्दगी ///

एक पक्षी आसमां में सैर करने को तुला है
जानते हो, कौन है वह ...मानव!
जो अपनी ही कल्पना में भुला है
बारिश की बूँदें जो धरती पर खुशी से गिर रही हैं
आह! सारी जिन्दगी इक बूँद-सी बह जायेगी!!

दुल्हन का जोड़ा जो उतरा शहनाइयाँ भी बज उठीं
साज भी आवाज से मिल हर मजे से सज उठीं
ये खुशी के चार दिन जो हरियाली लाये हुये हैं
एक दिन किरणों से सारी हरीतिमा ढह जायेगी!!

कौन ऐसा है कि जिसको जिन्दगी का गम नही
सघन घिरकर आ रही है घटा काली कहीं
एक दिन तो यह घटा ही प्रलय कहकर जायेगी
जिन्दगी दरिया-सी बहती जा रही है
एक दिन समंदर में मिल जायेगी!!

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19 APR 2021 AT 15:17


रोग-व्याधि ,संताप से, हैं विपदा से युक्त।
जगतनियंता कीजिए,जग को भय से मुक्त।।

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15 APR 2021 AT 13:45

ग़ज़ल

झरने लगे हैं देखो, जंगल सभी पवन से
इन्सानियत का धुआं, उड़ने लगा हवन से।

नारों की आहुति में, अक्षत हैं वायदों के
अपने ही कर दुखे हैं, करते हुए नमन से।

कोई लकीर सीधी, खींची नही है जाती
जब भी कदम उठे हैं, उलटे पड़े चलन से।

कल तक जो चीखते थे,देते नही दिखाई
शायद वो चल दिये हैं, होकर खफा भवन से।

कब तक करें भरोसा, ऊँटों के काफिलों का
मरुथल में जो गये हैं, कह अलविदा चमन से।

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15 APR 2021 AT 13:33

यात्राएं हैं अपनी-अपनी, साथ सभी के हम चलते हैं।
मंजिल पाने की आंखों में, सबके ही सपने पलते हैं।
कुछ करते हैं कानाफूसी ,कुछ हाथ मिलाते चलते हैं,
पर उदास हो जाता मन जब,अपने अपनों को छलते है।

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20 MAR 2021 AT 7:09



कर ले किस्मत चाहे जितने वार
जीवन में हम कभी न मानें हार

जीवन-पथ पर चलना है निष्काम
सदा कर्म पर अपना है अधिकार

मानवता हो जीवन का संदेश
कण कण के प्रति उमड़े मन में प्यार

बिखराएं नित स्नेह प्रेम सद्भाव
सत्य यही है यह जीवन का सार

जो करे क्रोध लोभ अहं का त्याग
बरसे उस पर स्नेह प्रेम रस धार

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28 FEB 2021 AT 17:56

मौसम ने बिखरा दिया, फूलों वाला रंग।
भौंरे भी गाने लगे, कोयलिया के संग।।

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25 OCT 2020 AT 12:57

बिकने को तैयार खड़े हैं रावण के पुतले
राम के हाथों मारे जावेंगे सब शाम ढले।
अच्छाई की बुराई पर जीत सदा होती है
नाश दंभ का होगा निश्चित रूप कई गढ़ ले।

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21 OCT 2020 AT 15:15

उदित सूर्य हर रोज ये, देता है पैगाम।
अंधकार को भूलकर,लें किरणों को थाम।‌।

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12 OCT 2020 AT 0:59

जिंदगी खुली किताब, पढ़ रहे हैं लोग!
शब्द-शब्द हाशियों में,गढ़ रहे हैं लोग!!

जिसके पृष्ठ-पृष्ठ पर, लिखा ही दर्द है!
कल्पना में बात सोचना भी व्यर्थ है!
फिरभी नित नवीन जिल्द,मढ़ रहे हैँ लोग!!

चाँदनी की बात, चाँद को न ज्ञात हो!
उस चकोर की भले ही जो बिसात हो!
असंभवी संभावनाएं जड़ रहे हैं लोग!!

दर्द क्या है, दुख क्या है और क्या है गम।
एक एक पाठ ये किसे पढ़ायें हम!
अजनबी ये सीढ़ियाँ हैं, चढ़ रहे हैं लोग!!

हालात यूं देखकर मुझे तो ऐसा लग रहा!
आदमी ही आदमी का खून पी रहा!
'शील' बात बात पर बिगड़ रहे हैं लोग!!

जिन्दगी खुली किताब,पढ़ रहे हैं लोग!!

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8 OCT 2020 AT 16:18

मुक्तक--

तरह तरह की तिकड़मबाजी,आड़े तिरछे लोग।
सबको आगे बढ़ने का ही,लगा हुआ है रोग।
दंद-फंद में लगे हुए सब, ऐसा करें जुगाड़ ,
सारा वैभव खुद हथियाकर,करते हैं सुख भोग।


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