"जब राजा धार्मिक होता है और प्रजा अधार्मिक तो राजा को प्रधान कष्ट होता है। जब राजा अधार्मिक होता है और प्रजा धार्मिक तो प्रजा को प्रधान कष्ट होता है। जब राजा और प्रजा दोनों ही धार्मिक होते हैं तो उनके साथ साथ अन्य राष्ट्र भी सुखी रहते हैं। जब राजा और प्रजा दोनों ही अधार्मिक होते हैं तो वे स्वयं के साथ साथ अन्य राष्ट्रों को भी पीड़ित करते रहते हैं।" उपर्युक्त सिद्धान्त अथर्ववेद के अलब्धभाग 'आनन्दकाण्ड' का है, जिसका कुछ भाग हमें साधनात्मक विधि से स्वप्नलब्ध हुआ। अथर्ववेद के अल्पलब्ध भाग सौभाग्यकाण्ड के ही समान इसमें भी बहुत अद्भुत बातें हैं।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
आर्यावर्त सनातन वाहिनी "धर्मराज"
साईं बाबा की पूजा करने वाले लोग यह कुतर्क करते हैं कि जब भगवान् सर्वत्र हैं तो साईं की मूर्ति में भी हैं। ऐसे में साईं की पूजा भगवान् मानकर करने में क्या आपत्ति है ? मैं कहता हूँ, ऐसे तो फिर भगवान् विष्ठा और विष में भी हैं किन्तु भक्षण तो तुम पुष्ट अन्न का ही करते हो, विष्ठा-विषादि का नहीं। उस समय तुम्हारी बुद्धि कहाँ चली जाती है ? मूर्ति खाती नहीं दिखती, चलती नहीं दिखती, अपने सामने रखे प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकती, इसीलिए मूर्तिपूजा पाखण्ड है, ऐसा कहने वाले आर्य समाजी भी दयानन्द की मूर्ति बनाते रहते हैं। शास्त्रों में मूर्ति के अर्चाविधान में यह तो वर्णित नहीं कि मूर्ति का ईश्वरत्व उसके द्वारा प्रत्यक्ष भक्षण और गमन आदि क्रियाओं पर आश्रित है। साथ ही, जिन कृत्यों को प्रत्यक्षतः न करने से ये मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, उन्हीं भक्षण, गमन, रक्षण आदि कृत्यों को यदि मैं करता हूँ तो क्या ये मुझे अपना आराध्य मान लेंगे ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
इतने कथावाचक विदेशगामी हैं, इतने ब्राह्मणेतर व्यासपीठ पर बैठे हैं, इतनी महिलाएं कथा कर रही हैं, उनकी इतनी अधिक संख्या है, इसीलिए संख्याबल के आधार पर धर्मशास्त्रों में बदलाव लाना चाहिए, ऐसा कुतर्क जो करते हैं, वे यह क्यों नहीं कहते कि विदेशगामी और महिला कथावाचिका से सैकड़ों गुणा अधिक संख्या तो ईसाई और इस्लाम की है, फिर धर्मशास्त्रों को उनके अनुसार बदल देना चाहिए ? जनसंख्याबल धर्म का नियन्ता नहीं होता क्योंकि जब कोई प्रजा नहीं रहती, तब भी मनु आदि शिष्ट रहते हैं, जिनके द्वारा आचरित शिष्टाचार ही धर्म एवं धर्मानुबन्ध को स्पष्ट करता है।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
वेदभगवान् कहते हैं कि भगवान् विष्णु एवं भगवान् शिव एक दूसरे के हृदय हैं। हृदय को निकाल दो तो शरीर का औचित्य नहीं रहता है। जो वैष्णव शिवधर्म एवं शिवधर्मनिष्ठों से द्वेष करता है, अथवा जो शैव विष्णुधर्म एवं विष्णुधर्मनिष्ठों से द्वेष करता है, वे दोनों ही अपनी माता को मात्र प्रसवपीड़ा देने के लिए उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिए।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
धर्म को जब, जहाँ, जितनी मात्रा में मेरी आवश्यकता होगी, यदि वह मेरी क्षमता और नियन्त्रण की सीमा के अन्तर्गत है, तो मैं वहाँ धर्मरक्षा हेतु रहूँगा, इसमें "किसी" भी व्यक्ति का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं, कदापि नहीं। 'अपूज्या यत्र पूज्यन्ते' आदि वचनों से शास्त्र ने उसका सम्मान करने से मना किया है, जो सम्मान के योग्य नहीं। अतः अशास्त्रीय प्रवाचकों को 'सन्त' कहकर सम्मान करने हेतु मुझे विवश न करें। मैं धर्म से शासित होता हूँ, व्यक्तियों से नहीं।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
लोग कहते हैं कि मुझे खण्डन मण्डन छोड़कर अपनी साधना पर ध्यान देना चाहिए अन्यथा मेरी प्रगति नहीं होगी। मैं कहता हूँ, मुझे प्रगति नहीं चाहिए। मैं पिछड़ना चाहता हूँ, इतना अधिक पिछड़ना कि समाज के अन्तिम व्यक्ति को भी यदि धर्म के विषय में भ्रम हो तो उसके निवारण के लिए मैं उसके साथ खड़ा मिलूँ। मुझे जीवन में आगे नहीं बढ़ना है। मुझे जहाँ आना था, मैं वहीं पहुंचकर स्थित हूँ। मेरी उपस्थिति यहीं महत्वपूर्ण है। यदि मेरी सद्गति की चिन्ता भी मुझे ही करनी है तो मेरा इष्ट क्या करेगा ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
समाज दो दृष्टिकोण से बनता है। एक तो - "क्या हो रहा है", दूसरा, "क्या होना चाहिये"। जो "हो रहा है", उसमें युग और परिवेश की प्राधान्यता होती है। जो "होना चाहिये", उसमें शास्त्र की प्राधान्यता होती है। युग एवं परिवेश परिवर्तनशील होने से कभी उन्नति तो कभी अवनति का कारण बनते हैं किन्तु शास्त्र अपरिवर्तनीय एवं कालातीत होने से स्वानुगामी को सदैव उन्नत ही करते हैं।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
भारत की वर्तमान न्यायव्यवस्था विश्व की सर्वाधिक भ्रष्ट, पक्षपातपूर्ण, अन्यायपोषक एवं जनशोषक संस्था है। हो सकता है कि कुछ लोग व्यक्तिगत रूप से अच्छे हों किन्तु संस्थागत रूप से इसमें नीचता की पराकाष्ठा को चरितार्थ करने वाले लोग ही बैठे है। यह सत्य जनता भी जानती है और संस्था के लोग भी। विडम्बना यह है कि जनता केवल इस भय से मौन रहती है कि कहीं दस्यु को दस्यु कहने से उसकी अवमानना न हो जाये। सम्मान अर्जित किया जाता है, वह अधिकारों के दुरुपयोग से नहीं मिलता और इस विषय में भारत की वर्तमान न्यायव्यवस्था सर्वथा असफल एवं संवेदनाहीन है। यदि ऐसा ही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आज के कथित माननीयों को इतिहास में सर्वाधिक निन्दनीय लोगों में गिना जायेगा।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-
Someone asked me - What makes you happy ?
I replied - When people consider me as great and worthy.
He asked again - What makes you sad ?
I replied - When I realize, I'm not.
I love my haters because they don't lie about what they think of me.-
हिन्दू धर्म उदार है, असभ्य नहीं। अपनी असभ्यता को हिन्दू धर्म की उदारता के पीछे छिपाना बन्द करो। धर्म के दश लक्षणों में असभ्यता नहीं आती, इन्द्रियनिग्रह आता है। मनमानी करने को धर्म नहीं कहते, शम-दम और पवित्रता को धर्म कहते हैं। तीर्थस्थल में अथवा सामान्यतः भी दिन एवं जल में कामक्रीड़ा निषिद्ध है। व्यभिचार, अश्लीलता और असभ्यता का समर्थन उदारता नहीं, मनोविकार है।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु-