कामना की अग्नि से दग्ध जीवन ज्यों तप रहा है।
भटक रहा अतृप्त मन,तृप्ति को तड़प रहा है।।
ना कोई मुझसे वाद करे ।
ना कोई मुझसे विमर्श करे ।।
पुलकित हो जिससे रोम-रोम ।
ऐसे कोई स्पर्श करे।।
पा कर स्वयं को एकाकी , हृदय मेरा कलप रहा है।।
मैंने कभी पुण्य किया है।
और कभी पाप किया है।।
ग्लानि हुई है जब भी मुझे ।
तो ,मैंने पश्चाताप किया है।।
विकसित हो रही चेतना ज्यों-ज्यों,व्यक्तित्व मेरा पनप रहा है।-
एक साधु को काशी में आते देखा ।
कुछ बोल उसे यूं गाते देखा ।।
"दुविधा में अबतक जीवन बीता है क्या
घुट-घुट के कोई जीता है क्या ।।"
यह सुन मैं स्वयं को लगा कोसने ।
मैं हतप्रभ-सा यह लगा सोचने ।।
कि,"मदिरा स्वयं साकी पीता है क्या
घुट-घुट के कोई जीता है क्या ।।"
मुझसे वो मुद्रा की भीख ले गया ।
क्षण भर में वो मुझको सीख दे गया।।
मुझे लगा पढ़ी उसने गीता है क्या
घुट-घुट के कोई जीता है क्या।।-
न जाने कितने अरमान लिए फिरता हूॅं।
मैं बहुतों का एहसान लिए फिरता हूॅं।।
ग़म और पीड़ा सदा रहते हैं साथ मेरे।
और,मैं चेहरे पर मुस्कान लिए फिरता हूॅं।।
जो पल-पल कराते हैं मुझे बदनसीबी का एहसास
मैं बदन पर ऐसे जख्म का निशान लिए फिरता हूॅं।।
जो है थोड़ी कड़वी और अधिक मीठी भी ।
मैं मुंह में ऐसी जुबान लिए फिरता हूॅं।।
जिसे लोग समझते हैं निकम्मा और बुद्धू ।
मैं कुछ ऐसी पहचान लिए फिरता हूॅं।।-
हालात की वजह से कुछ यूं मजबूर होता गया।
जो भी मेरे करीब था, उससे दूर होता गया।।
लोगों ने भरपूर कोशिश की उसे बदनाम करने की
किंतु,जो किरदार बेहतरीन था,वो मशहूर होता गया।।
जिसे इल्म नहीं इस कायनात के आयाम का ।
वो शख़्स खुद -ब-खुद मगरूर होता गया।।
वो नहीं झेल पाया है अक्सर नाकामी के दंश को ।
जिसे अपनी कामयाबी पर गुरूर होता गया।।
खौफ के बदौलत जिसने कायम की बादशाहत ।
वो बादशाह दिन-ब-दिन और भी क्रूर होता गया-
मेरा व्यक्तित्व सादगी के आगोश में है।
मेरा तन नशे में है ,मेरा मन होश में है ।।
(क्रमशः)-
कभी खुशहाल,कभी गमगीन है ।
ऐ जिन्दगी,तू कितनी हसीन है।।
जैसे - जैसे तू उम्र में बीत रही है ।
तुझे जीने की दिलचस्प रीत रही है।।
तू है कभी मायूस और कभी शौकीन है ।
न जाने कब से जमीं पर तेरा वजूद है ।
इस कायनात से परे भी शायद तू मौजूद है।
तू है कहीं गुमनाम और कहीं नामचीन है ।।
कोशिश है तुझे कामयाब करूं।
खुद का ये पूरा ख्वाब करूं ।।
है तू जैसी भी,मगर, मौत से बेहतरीन है।।-
विरह की पीड़ा सह जाने दो ।
नेत्रों से अश्रु बह जाने दो ।।
मैं देवता जैसा पवित्र नहीं हूॅं।
राम जैसा मैं आदर्श चरित्र नहीं हूॅं।।
हूॅं कला का साधक,मुझे,इसलिए
अपनी अनुभूति कह जाने दो।।
नेत्रों से अश्रु बह जाने दो ।।
दृष्टि जब से गहन हुई है।
कल्पना तब से सघन हुई है।।
कल्याण ना हो जिससे प्राणी का
वैसा वैभव ढ़ह जाने दो ।।
नेत्रों से अश्रु बह जाने दो ।।
महत्व बहुत है जीवन में क्षण का ।
जैसे कि इस सृष्टि में कण का ।।
अल्प मात्रा में ही ,लेकिन,
संवेदना उर में रह जाने दो ।।
नेत्रों से अश्रु बह जाने दो।।-
जो द्वार-द्वार भटक रहा ।
जो अन्न की याचना कर रहा ।
वह हर एक याचक कह रहा
भिक्षां देहि ।
अपने आराध्य के समक्ष ।
जो आराधना में मग्न है ।
आशीष की भावना लिए
वह हर एक आराधक कह रहा ।
भिक्षां देहि ।
जिसका लक्ष्य सिद्ध नहीं हुआ है।
जिसका साधन विफल हो रहा
सिद्धि की कामना लिए साधना में
वो हर साधक कह रहा
भिक्षां देहि ।
मूल्यवान् श्वेत परिधान में।
निर्धन अर्धनग्न जन के सामने
मत की धारणा लिए
हर एक शासक कह रहा
भिक्षां देहि ।
अपूर्ण है जिसकी उपासना
प्रबल है जिसमें वासना
अध्यात्म की तृष्णा लिए
वो हर उपासक कह रहा
। भिक्षां देहि ।-
विस्मृत करने योग्य नहीं है।
देखे जो सुंदर दृश्य नयन से ।।
धरा-गगन के,निश्छल बचपन के ,
या फिर हो वो चंचल यौवन के ।।
आदर्श,यथार्थ के अंतराल में,
हो जीवन व्यतीत रहा है।।
जीवन में जो क्षण बीत रहा है।
कठिन है उसे पराजित करना ।
जो प्रतिभा के साथ पला है ।।
जैसे हर वो मानव बृहन्नला है ।
जिसके पास विशिष्ट कला है ।।
है समय का संयोग अनोखा ,
कि, कोई क्षण में हार रहा है
कोई क्षण-क्षण जीत रहा है ।।
जीवन में जो क्षण बीत रहा है।
स्मृतियों का बन गीत रहा है।।-
जीवन में जो क्षण बीत रहा है।
स्मृतियों का बन गीत रहा है।।
मिले पथिक बहुत से पथ में ।
कुटिल - नेक कुछ अंजाने से ।।
चूके नहीं कभी वो हमको ।
बहकाने से ,समझाने से ।।
स्वर्णिम रहा है जिसका जीवन,
रोमांचक उसका अतीत रहा है।।
जीवन में जो क्षण बीत रहा है।......(सतत्)-