All this I wrought without thee—
Alas, ‘twas but my loss.
All this I yearn to craft with thee—
And such shall be my gain.
Yea, all these glories I would cast to dust,
If but to claim one fleeting minute in thy company.
Thy laugh, thy voice, thine eyes—
Thy silken hair, thy lips of wine,
Thy form which doth unmake my breath—
Yet above all, thy mind—
O sweet, ever-surprising mind—
A beauteous quarry, rich and deep,
Wherein I find my soul’s delight to delve.
‘Tis my sacred joy, my gentle doom,
To love thee thus and evermore.-
𝗡𝗼 𝗺𝗮𝘁𝘁𝗲𝗿, 𝗵𝗼𝘄 𝘁𝗮𝗻𝗴𝗹𝗲𝗱 𝘁𝗵𝗲 𝘀𝘁𝗿𝗶𝗻𝗴𝘀 𝗼𝗳 𝗺�... read more
लकड़ियां
मैं सिर पटककर मर जाता,
अगर मेरी बेटी न होती...
इस जलती हुई देह के साथ,
अपनी सांसें भी छोड़ देता।
मगर एक दिन, बेटी ने कहा—
"पापा, क्यों हो इतने व्यथित?"
"हम लड़कियां तो लकड़ियां हैं,
जो बड़ी होते ही जलने को लिखित!"
"कभी चूल्हे की आग में,
कभी रस्मों के दावानल में।
कभी समाज की धधकती भट्टी में,
कभी रिश्तों के बोझल जंजाल में।"
"हम जलती हैं, बुझती हैं,
धुएं संग उड़ जाती हैं।
कभी रोटियां पकाती हैं,
कभी चिताएं सजाती हैं।"
मैं निःशब्द था, निश्छल था,
बेटी की पीड़ा से छलनी था।
पर सोचता हूं, कब तक यूं ही,
लकड़ियां जलती रहेंगी...?
-
सुबूओं को बुझा कर
आज माहताब को अज़्मत बख्शते हैं,
जो कभी हमारे न हुए,
फिर भी उन्हें याद करते हैं।
कैसे ये खयालात हैं कि
दिल को नेस्त-ओ-नाबूद करते हैं,
ये तसव्वुर और वहम जो
हमें चूर-चूर कर देते हैं।
हाँ, इश्क करते हैं उनसे, मगर
सिर्फ उनके जाने के बाद करते हैं।
सुबूओं को बुझा कर
आज माहताब को आबाद करते हैं...।-
"ये ज़िया, ये सहर, ये चमक
मेरी आँखों में ख़लिश सी है,
इन्हें मद्दम कर दो।
ये मोहब्बत का नूर,
ये फ़ितूर, इसे बुझा दो,
मुझे नींद भी तो अभी
ज़रा सी ही आई है।"-
तुम्हारे साथ किसी एकांत क्षेत्र में बैठ
तुम्हारी तरफ़ देखना आनंदमय था
और किसी नदिया किनारे
तुम्हे सुनना बहुत ही शादमन
परंतु तुम्हारे हाथों को थाम कर
रुद्राभिषेक करना
मेरे मन को सबसे ज्यादा
प्रहर्षित करने वाला क्षण था
उस वक्त मैंने
मंदसानु और यथार्थवाद
की परिधि देखी ।-
के इतने ख़ूब-रू फ़ज़ाएँ आई
मगर तुम नहीं आये
कुछ तो पूरे चाँद लाई
फ़िर भी तुम नहीं आये
अब्र-ए-तर, माह-ओ-अंजुम कहकशां,
और तुम्हारी पसंदीदा दास्तां भी
मिलने के कई बहाने लाई
मगर तुम नहीं आये।-
I have kept all abreast of the rain
the park bench coruscating the pain
all the shards of dreams are engrain
and counting those stars are in vain
I look at the memories of your name
I expunge them and shape them again.
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मेरे यार मश्क़-ए-सितम का मलाल न कर
कोई जा रहा तो उसे जाने दे अब सवाल न कर ।-
अब्र-ए-तर कैद है मेरे इस विरान दिल मे कई अर्से से
किसी मासूम को ईज़ा-दही की दाद जो देती रही हूँ मै ।-
एक शायरी एक सवाल सुनिये
हो सके गर तो जवाब बुनिये
ये कैसा झरोखा ये कैसा नज़ारा है?
वो मुझे जो यूँ ठुकरा के आज जा रहा है
ग़ैरो के घरौंदों मे चिराग़ जला रहा हैं
मुझ से ही मेरी खामियां गिनवा रहा है
न जाने माज़ी मे ऐसी क्या कशिश थी मुझमें
जो आज वो ख़ुशखिराम भुला रहा है
बज़्म-ए-जानां में बैठ मुझ पर इलज़मात् लगा रहा है
और तोहफ़े मे मुझे हिज्र दाइमि पेश कर वो मुस्कुरा रहा है ।-