एक समय था,
जब सारे जज़्बात इन पन्नों से ही बॉट लिया करती
पर आजकल इन ख़ामोशियों को अंदर ही समेट लेती!
जाने क्यूं ,
कलम उठते , तो शब्द विलीन हो जाते
औऱ कुछ कहना चाहती,तो अल्फ़ाज़ कहीं खो जाते!-
मुश्कुराता मुखौटा पहन रखा है मैंने जाने कबसे
दम घुटता है अब इस बनावटीपन से
पर लगता शिद्दत वाला प्यार है इसे मुझसे
तभी तो लिपटा है मुझमें यू गोंद के जैसे!!!
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मैं और तुम एक रेल की पटरी जैसे हैं
साथ रह तो सकते हैं
पर कभी मिल नहीं सकते।।-
दोस्त कहकर दोस्ती यू निभा गए
कि हमसे हमारा ग़ुरूर ही मिटा गए
नज़रअंदाज़ खुद मुझे वो कर गए
और जाते-जाते ये इल्ज़ाम भी मुझपर लगा गए।।
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खुद उपेक्षा कर
अपेक्षा रखती हो प्रेम की
खुद दगा दे कर
ईक्षा रखती हो इंतज़ार की।।-
सुबह की ताज़गी है तू
शाम में लाज़मी है तू
तुझसे ही बनती है सुबह मेरी
बस होठों से लगजा
मेरी चाय की प्याली तू।।
☕☕-
ख़ता नहीं,मोहब्बत है मेरी
बेवफ़ाई उसकी,सज़ा है मेरी
हमपे तो बस इश्क़ के,इस दो पल का एहसान है
इतनी भी ख़ूबशूरत कुछ है,इस दुनिया में
इस ख़ूबशूरती का हमें एहसास है
चलो जाती है तो जाने दो
शोहरत की भवर में बह जाने दो
लौट आएगी,गर लिखनी होगी मेरे संग ये कहानी
गर ग़ुम हो गयी,अपनी यश के धुन में
मैं मेरे एहसास, लिख लेंगे हमारी ज़ुबानी।।
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सुबह की लालिमा के साथ
मेरे खिड़की खोलने के बाद
जब मेरी प्रिये का दीदार होता है।।
रात की चाँदनी के साथ
उसके खिड़की बंद करने के बाद
जब वो मेरी आँखों से ओझल होती है।।
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वो देती रही बेवफ़ाई ,दर्द की तन्हाई
फिर भी डूबा रहा वो ,प्यार की लहरों में
सोच कभी तो होगी दिल की सुनवाई
फिर भी डूबा रहा वो ,इश्क़ के दरिया में
सोच कभी तो खत्म होगी ये रुसवाई
उफ़! कैसा ये इश्क़ है जनाब
जीने की वजह भी दे
और मरने की तलब भी!!
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छोटी थी मैं जब, गोदी में खेलूं आपके
आप मुझे चिढ़ाते जब, झगड़े भी करु आपसे
वो दिन भी क्या दिन थे
मैं बाबू आपस में लड़ते, तब आकर आप हमें समझाते
खेलने-कूदने लगते हम दोनों, पढ़ाई में भी मन लगाते
वो दिन भी क्या दिन थे
पर आजकल लगता है कुछ अलग
ये बेटी जो हर समय कूदती-फांदती
बिलख रही है हर पल अब
हर लम्हे बस यही कहती
वो दिन भी क्या दिन थे
वो बेटी जो करे हमेसा राज
क्या हुआ जो खुशियाँ हुई उससे नाराज़
जिसके बल पर इतना इतराती
उसके जीवन में वो खुशी ही नहीं जो वो इठलाती
सच वो दिन भी क्या दिन थे!!-