जब कहने को कई बातें हो,
और अकेली अंधेरी रातें हो,
जब आंसुओं की बरसातें हो,
तब अकेला सा लगता है।
जब पूरा दिन ढल जाए,
दिल में दर्द सा उठ जाए,
जब कहीं मन ना लग पाए,
तब अकेला सा लगता है।
जब कोई पास ना हो,
जीने की कोई आस ना हो,
संभालने को कोई खास ना हो,
तब अकेला सा लगता है।
जब हजारों दर्द को दफनाएं,
मन के ज़ख्मों को अपनाएं,
इस अकेलेपन से हार जाएं,
तब अकेला सा लगता है।
जब कोई गले को न लगाए,
इस टूटे दिल को ना बहलाए,
आंसू पोंछ कर हमें ना फुसलाए,
तब अकेला सा लगता है।
~श्रेया
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Choreographer
Performer
Sitar Player
Freelancer
Writer
कुछ तेरे नज़रों का ही तो असर हैं जो में होश खोने लगी हूं, ये इत्र है या तेरे बदन की ख़ुशबू जो मैं मदहोश होने लगी हूं।❤️🔥
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आज उसे चांद में अपना प्यार दिख रहा हैं,
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जिस्म मेरा छूता था वो प्यार की दुहाई देकर जैसे इश्क़ नहीं सौदा हो जिसम का!
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रिश्ता क्या ख़त्म हुआ हमारा तुमने तो बदनामी फ़ैला दी मेरी ज़माने में, ख़ूब कामयाबी मिलती तुम्हे भी अगर इतनी मेहनत लगाते इज़्ज़त कमाने में।
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तेरे यादों के सहारे जी रहे है हम पर जीने का मज़ा आ नहीं रहा,
मदहोश है यूं तेरे बेवफ़ाई में के किसी और का इश्क़ अब भा नहीं रहा।-
मौत के इंतेज़ार में हम जी रहें हैं ज़िन्दगी
ये कैसी ख्वाहिश है जीते जी मरने की?-
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क्या हाल है और क्या दिखा रहे हो?
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तो झूठी तसल्ली क्यों दिला रहे हो?-
यूं जो तुम सबको जताते हो
बेवफ़ा मुझे अब बताते हो
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अपने झूठे ज़ख्म दिखाते हो
अब तो सपनों में सताते हो
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मुझसे ही छुप छुप कर तुम
मेरी ही बदनामी फैलाते हो
कभी यादों में बहलाते हो
कभी बालों को सहलाते हो
और आंखे अपनी मूंदू तो
बड़े मासूम से मुस्कुराते हो
जब रिश्ते ना निभाते हो
तो सपने क्यों दिखलाते हो
बेगैरत हमें ठहरा कर क्यों
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नफ़रत हैं मुझसे तो क्या हुआ
पर झूठा इल्ज़ाम क्यों लगाते हो
अब तुम अकेले भी मुस्कुराते हो
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उस रौशन गली के गुमनाम कमरे में एक बिस्तर तुमने भी तो लगाया हैं,
मैं अकेली नहीं जिसने उस रात अंधेरे में अपना सारा इज्जत गवाया हैं,
वो चांदनी से चमचमाते गलियारे में तुमने सिर्फ़ मेरा दाम ना लगाया हैं,
एक बार फ़िर किसी ने अपने चाहत के खातिर मेरे सपनों का गला दबाया हैं।
धीरे से पल्लू जब तुम हटाते हो दिल तो मेरा भी बहुत रोता हैं,
पर कुछ तो ज़रूरी हैं घर चलाने को मेरा बच्चा अक्सर भूखा सोता हैं,
वो लिपिस्टिक की लाली और गजरे की ख़ुशबू में होश जो तुम्हारा खोता हैं,
इस बाज़ार में जिन्हें तुम वैश्या कहते हो एक अंश तुम्हारा भी तो होता हैं।
जिनके नाम पर तुम गालियां बनाते हो वो तुम्हारे भूखी गंदगी को मिटाती हैं,
कभी न कभी उन्हें भी अपने ज़िन्दगी की हक़ीक़त सताती हैं,
कभी हस्ती हैं, कभी हसाती हैं, कभी रोती है तो कभी रुलाती है,
यहां छोड़ जाते हो अपने आग कि निशानी और वो "वैश्या" "मां" बन कर उसे दुनिया से बचाती हैं।
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