Shreshth Verma   (ⓈⒽⓇⒺⓈⒽⓉⒽ ⓋⒺⓇⓂⒶ)
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Student
Joined 1 July 2020


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Joined 1 July 2020
28 JUL 2021 AT 13:46

पल में अक्स सा ओझल हो जाऊँगा,
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा!

खलिश भी ना होगी जुदाई की कोई,
तुम्हारे ज़हन में ऐसा बस जाऊँगा!

हाथों की लकीरों को जब देखोंगे कभी,
इनमें कहीं तुम्हें मैं नज़र आऊँगा!

जब कभी सुनोंगे हवाओ की सदा,
खुशबू बनके तुम में सिमट जाऊँगा!

ग़म के छलकेंगे अगर कभी अश्क़,
तब ख्यालों में तुमसे लिपट जाऊँगा!

ये भी मेरा सच है मेरे हमनफ़स, A..
तुमसे मैं जल्द ही बिछड़ जाऊँगा!

अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा..

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25 JUL 2021 AT 9:24

चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, इन सब में फ़सने जाए कौन.,
उसकी हरी चूड़ियाँ ही बता देती हैं कि सावन आया हैं..।।

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3 JUL 2021 AT 20:34

सादगी गुमा दी माँ मैंने.।
ज़िंदगी उलझा ली माँ मैंने.।।

मिला ना सुकून की बूंद, आंखें भींगा ली माँ मैंने.।।

सादगी गुमा दी माँ मैंने.।
ज़िंदगी उलझा ली माँ मैंने.।।

तू कहती थीं हौंसला रख हमेशा, देख उम्मीद की लौ जला ली माँ मैंने.।।

सादगी गुमा दी माँ मैंने.।
ज़िंदगी उलझा ली माँ मैंने.।।

बनाता था कभी कागज से कश्तियां, देख सारी कश्तियां डूबा दी माँ मैंने.।।

सादगी गुमा दी माँ मैंने.।
ज़िंदगी उलझा ली माँ मैंने.।।

आज तू भी अपने दुलारे से दूर है, और दूरियां बढ़ा दी माँ मैंने.।।

सादगी गुमा दी माँ मैंने.।
ज़िंदगी उलझा ली मां मैंने.।।

आज अपने चेहरे पर खाख लपेट, अपनी होली मना ली माँ मैंने.।।

सादगी गुमा दी माँ मैंने.।
ज़िंदगी उलझा ली माँ मैंने.।
सादगी गुमा दी माँ मैंने.।।

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1 JUL 2021 AT 6:54

तरसती आँखों को आस है तेरी,
भटकती राहों को तलाश है तेरी!

सबब-ए-फिराक का इल्म नहीं,
कौन सी मजबूरी हमराज़ है तेरी!

ना समझ मुकद्दर को खुदा,
हर अंजाम की आग़ाज़ है तेरी!

ख्याबों की कीमत सांसों से देने वाले,
जिंदगी बेंचती है जिसे लाश है तेरी!

इतरा मत तांरिफ़-ए-ग़ज़ल पर 'श्रेष्ठ'
एहसास उसके हैं बस आवाज़ है तेरी!

भटकती राहों को तलाश हैं तेरी...!

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30 JUN 2021 AT 20:49

ऐसा नहीं हैं कि उसने दामन-ए-मोहब्बत छोड़ा
आता हैं प्यार उसे, बस हम पर नहीं आता

किसी पहेली सा हैं, हिसाब-ए- इश्क़ नादां
ख़ुदको खुदसे भी घटा, तो सिफ़र नहीं आता

हम जानते हैं उन रास्तों की नियत को
जो उधर जाता हैं, कभी इधर नहीं आता

खींचता रहता हैं मेरे दिल मे रह-रह-कर
ये क्या हैं जो लफ़्ज़ों में उतर नहीं आता

मेरी तन्हाइयों के ये फैले हुए वीरां सहारा
तुम्हारी रहगुज़र मे शज़र क्यों नहीं आता

चाहे जितना भी मिले, कम हीलगता हैं
मोहब्बत को सुकून का हुनर नहीं आता

दिल डूब जाता हैं, गम को पिघलते ही 'श्रेष्ठ'
मगर इन आँखों में, अश्क़ उतर नहीं आता

श्रेष्ठ वर्मा... ✍✍




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5 JUN 2021 AT 13:17

अब पलटकर देखना छोड़ दे दिल मेरे.,
कोई नहीं हैं यहाँ तेरे नाज़ उठाने के लिए .!

अब तो जलकर ख़ाक हुआ दामन मेरा.,
आये हैं चंद हबीब आग बुझाने के लिए.!

बेबस हैं लकीरों के आगे हाथ मेरे.,
बस माँग रहे हैं दुआ कज़ा आने के लिए.!

क्या ज़िंदगी इस मोहब्बत ने बख्शी हैं 'श्रेष्ठ'...

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30 MAY 2021 AT 15:44

माज़ी के दाग यादों से जाते क्यों नहीं
मैं तो भूल चला; ये ज़ख्म मुझे भूलाते क्यों नहीं

झटक दूँ इन्हें ज़हन से तो साँस मिले
मार तो दिया हैं मुझे, ज़ालिम दफ़नाते क्यों नहीं

न अश्क़ से सींचा, न ख्यालों की ज़मीन दी
फिर भी दर्द के ये फूल मुरझाते क्यों नहीं

क्या तेरा रूठना गवारा हैं हसरतों को "श्रेष्ठ"
ख़्वाब नए देकर तुझे मनाते क्यों नहीं

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27 MAY 2021 AT 11:05

दुआ माँगते बहुत हैं पर इबादत चंद से होती हैं.।
इश्क़ बहुतो से हुआ पर मोहब्बत कम से होती है.।।

तुम मेरी आवाज़ को यूँ नज़रंदाज़ मत किया करो.,
हर इंकलाब कि आगाज ज़ुल्म-ओ-सितम से होती हैं.।

कभी मेरे इस ज़हन पर अपना कान रखकर सुन.,
जब दिल टूटता हैं तो अंदर आवाज़ छन से होती हैं.।

वो रिश्ते हर हालात में आपका साथ निभाते हैं.,
जिसकी शुरुआत एक-दूसरे के गम से होती हैं.।

तुम अपनी कामयाबी को जो भी चाहो नाम दो.,
मगर एक इंसा की पहचान उसके करम से होती हैं.।

मुझे ख़ुद अपने से भी बेवफा होना मंजूर हैं 'श्रेष्ठ'.,
एक सुखनवर की वफ़ादारी पहले कलम से होती हैं.।।

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20 MAY 2021 AT 13:26

मिला ना वक़्त कम्बख़्त को हमीं के लिए
ताजों तख़्त छोड़ आये जिस हँसी के लिए

इस क़दर खुश्क हुआ इश्क़ हमारा देखो
रोये हम ज़ार ज़ार, ज़रा सी नमीं के लिए

बे-मुरव्वत ना हुए हम कभी किसी के लिए
सब ने आजमाया बार बार इस कमी के लिए

दहशत-ए -दुश्मन-ए-जान आज कल देखो
चार शख्स भी न मिलें मातम-ए-गमी के लिए

नागवारा हैं हमें अब ये हँसी ज़माने भर के
ऐ ख़ुदा भेज कोई हूर तू ज़मीं के लिए

श्रेष्ठ वर्मा..✍✍




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19 MAY 2021 AT 21:57

सारा दिन गुज़र गया और तेरी खबर न लगी
जिंदगी पहले कभी इतनी सितमगर न लगीं

मौसम-ए-बरसात हैं पर तू जो नहीं साथ मेरे
गिरती बारिश भी रंज-ओ-गम से इतर न लगी

किस तरह छुपाते जहां से हम खल्वत-ए-गम
कोई भी शय तेरे बाद, जान-ए-ज़िगर न लगी

रात भर कांपता रहा सर-ब-सर भीगा ये शहर
लगाई इस दिल में आग बार बार मगर न लगी

खलिश सी उठी दिल में, साँसे मंद मंद चली
मौत आयी मगर किसी को भी खबर न लगी

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