आधी रतिया चुप्पी साधे, बातें लाखों करते हम
प्रेम अपार अनंत असीमित,आँखों आँखों पढ़ते हम
लोक रीत और नाम बचाने, अपनी झूठी शान बचाने
देकर दिल को लाख बहाने,निकल पड़े मन को समझाने
खुद से लड़ के जग से डर के बेबस एक दूजे को कर के
विवश हुई अपनी आंखों से, आँसू आंसू संग्रह करके
अपनी ही नज़रों से गिर कर,मान समाज में गढ़ते हम
भाव प्रेम के लिखते लिखते ओर करुण की बढ़ते हम
बिन कुछ बोले एक दूजे को भेंट विरह अब करते हम
जिंदा रहने की कोशिश में तिल तिल करके मरते हम
दुनियां से कितना डरते हम अब महज़ दिखावा करते हम।
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सुनो।
सुनो मुझे सरकारी नौकरी के झाँसे में न फँसाना।
तुम मेरे हो मैं तुम्हारी हूँ बस इतना सा विश्वास दिलाना।
घर आते ही इससे पहले कि तुम प्रेम से मुझे पुकारो... 'राधे' !!!!!
मैं तुम्हारे आने का समय जानकर,
दरवाज़ा खोलकर इक प्यारी सी मुस्कान और
खिलखिलाती आँखें लिए स्वागत करुँ तुम्हारा।
तुम मेरी प्रतीक्षा का सफ़लस्वरूप बन मुझे सफलता क्या है ये अनुभव कराना ।
कोई उपवास रखूँ मैं जब तुम्हारी खातिर, तुम मेरे हाथों में खुद मेहंदी लगाना।
जिसे कोई बारिश धुल न सके, उस प्रेमरूपी कुमकुम से मेरी मांग सजाना
जिसे कोई आँधी न उड़ा सके, ऐसी वो सम्मान की चूनर मेरे सिर उढाना।
मैं धन्य धन्य होजाऊँ जिसे पाकर, तुम्हे अपना कह सकूँ अधिकार जताकर,
ऐसा वो अपने नाम का मंगलसूत्र मेरे गले पहनाना।
मुझे सरकारी नौकरी के झांसे में न फँसाना।
तुम बस हरदम मेरे कहलाना।
तुम बस हरदम मेरे कहलाना।-
छोड़कर तुम मेरा हाथ जब जाओगे।
लेके घर जब किसी और को आओगे।।
तुम जो कहते थे तुम हो सदा से मेरे...
क्या तुम्ही गैर अब मुझसे कहलाओगे...?-
अब तक जब भी समझा,
मुझपर सिर्फ अपना हक़ समझा तुमने।
बात जब जब उठी ज़िम्मेदारी की मेरी,
तब तब मुझसे मुँह फेरा तुमने।।
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जब साँस अटक जाए तो घुटन जायज़ है,
घुटन साँसों से हो जाये तो क्या कीजे।
ख्वाबों को तो मैं यूँ मुकम्मल कर लूँ,
मग़र नींद ही न आये तो क्या कीजे।
ये मेहंदी ये चुनरी ये कंगन और ये चूड़ियाँ।
जो इनका रंग उतर जाए तो क्या कीजे।
टूट के चोट ये पहुंचाए तो क्या कीजे।
अरे! इन्हें सम्भाल कर रखो ये नज़राने हैं उनके,
उनसे वास्ता ही मिट जाए तो फिर क्या कीजे।
बेरंग सी तेरी मुस्कान कितनी रंगीन है 'स्वर्णा'
रंग जो ये भी उतर जाए क्या कीजे।-
बेरंग सी तेरी मुस्कान कितनी रंगीन है 'स्वर्णा'
रंग जो ये भी उतर जाए क्या कीजे।-
मैनें सब कह दिया तूने कुछ न कहा।
मध्य तेरे मेरे चाहे कुछ न रहा।।
चेतना बनके मैं भी तो तुझमें रही।
बन के तू साधना मेरे मन में रहा।।-
कमी करता नहीं कोई, ज़माना तंग करने में।
तो फिर डरती नहीं मैं भी, मोहब्बत से मुकरने में।
कभी मुस्कान खिलती थी तसव्वुर जो तुम्हे कर लूँ
अब आँखें भीग जाती हैं, तिरी यादों के झरने में।-