देखा था जब से उसे केवल देखते रह गए
उसकी आँखों की नरमी से दिल सेंकते रह गए
गीत तो बहुत सुने पर सिर्फ गुनगुनाते रह गए
ज़िन्दगी के सफर में हम फिर अकेले रह गए
हुआ था बेकाबू दिल पहली बार इस कदर
जाने क्या लिखा था मुकद्दर में क्या पता
उसकी बातों की आदत बस पालते रह गए
ज़िन्दगी के सफर में हम फिर अकेले रह गए
हुई थी मनमानियाँ बेख़ौफ इस दिल में
चला था दौर-ए-इश्क इक ग़ैर की महफ़िल में
अनजाने से ख़्वाब दिल में पालते रह गए
ज़िन्दगी के सफर में हम फिर अकेले रह गए
सोचा करूँ इजहार-ए-इश्क कि रुकूँ कि क्या करूँ
नहीं है वक्त ज्यादा अब दर्द बढ़ता है क्या करूँ
करके फ़रियाद रब से बस बाट जोहते रह गए
ज़िन्दगी के सफर में हम फिर अकेले रह गए
स्वीकारा नहीं तोहफ़ा हमारा अस्वीकार कर दिया
कोई बात तो नहीं मगर दोस्ती भी भुला दिया
चले थे पाने जिसे 'शिवि' उसे फिर ढूँढते रह गए
ज़िन्दगी के सफर में हम फिर अकेले रह गए
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