कल क्या थी,आज कौन हुं
पता नहीं क्या सोच कर मैं मौन हुं....
कल थी एक नदी जो
रहतीं अपनी मस्ती में मस्त,
आज मिलकर समुद्र में न
जाने किधर हो गई व्यस्त....
लोगों के समझाने पर
लगता है मैं बड़ी हुं,
पर ये लोग नहीं समझते मैं
आज भी उसी बचपन में पड़ी हुं....
मुझे आज भी वही आजादी चाहिए,
मैं बच्ची ही ठीक हुं मुझे ना समझदारी चाहिए....
इस समझदारी में इतना सोचना पड़ता है
सब अच्छा न होते हुए भी
सब अच्छा है बोलना पड़ता है....
छोटी हुं मैं सबसे
पर समझदार बनने की ज़िद पर
अडी हुं जाने कब से.....
देर हो गई लोगों को समझाने में,
खो गई मैं भी इसी जमाने में.....
इंतजार करतीं हुं आएगा इक सवेरा,
जो मिटा देगा
समझदार बनने का अंधेरा......
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