कभी चाहत पूरी न हो सकी मेरी
जिन्हें चाहा, वो मेरे हुए नहीं
जिनकी चाहत बनी, उनकी मैं न हो सकी
जिनसे निभी,
वो नसीब में रिश्ते बनकर आ न सके
और बेनामों पर सवालों के पहरे बहुत थे
जिनसे बंधी,
वो मेरे दायरे बन गए
ऐसे सभी रिश्ते दिल का भार बनकर रह गए
मुझसे पूछा होता जो किसी ने
मैं बताती जरूर
"ये ख़्याल ही बेहतर है चाहत का
जमीं पर तो बस, कब्रें बिछी हैं"
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