एक स्त्री को जब देखती हूं
सोचती हूं उसपर एक कविता
लिखीं जाए,
एक ऐसी कविता जो कालजयी
ना हो,
वर्षों से लिखीं जा रही कविताएं
कालजयी होती जा रही है।
और उन पन्नों में जो लिखा गया है
वो अतीत से वर्तमान तक घूम रहा है।
मानो!
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड छिपा है उनमें
वो दर्द, तकलीफ, झुनझुनाहट
टूटते सपने, त्याग इत्यादि।
स्वयं में झाकने पर वो दर्द
सांझा सा हो जाता है।
और मां के हाथो की लकीरें
उन शब्दों को समेट देती है
जो शब्द अनकहे रह गए।
कविता तो में लिखूंगी अवश्य!
ही ऐसी कोई!
बस वो कालजयी ना हो जाए
यह डर मन को सताता है।
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"अल्फाजों के सौदागर"
Join yq: 5th April 2018
First crush❤
महाकवि निराला💓
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चलकर तुम यूं रूक ना जाना
असफलता से घबरा मत जाना
वक्त लगता है खुद को संभालने में
टूटी उम्मीदों को फिर से जगाने में
कब तक रोकेगा ये जहां तुम्हें ?
कब तक तोडेगी उम्मीदें तुम्हें?
माना आज कुछ मिला नही
हौसला तुम्हारा पर टूटा नही
गिरकर चलना ,तो चलकर दौडना
है मेरे दोस्त
अंत तक तुम्हें यूं ही लडना है।
अभी तो आने वाला कल बाकी है
आज पतझड़ तो कल सावन आना
बाकी है।
अभी तो एक किरण निकली है कल
सूरज निकलना बाकी है।
अभी और चलना बाकी है।
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चंचल मन,बिखरे हालात
मध्य रात्रि, हजारों सवाल
खोया हुआ एक पथिक
चले जा रहा है अपने
वजूद को तराशने....
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धीरे!धीरे
वक्त आगे बढा,पर मैं
अपने सवालों के साथ
वही पीछे रह गई
जीवन का वो क्षण
रूक-सा गया
मन का सागर सवालों
में डूबता गया
नाविक भी मैं,
सागर भी मैं
लेकिन...
ये गहरा पानी मुझे
डुबोएं जा रहा है
वक्त का पडाव मुझे
खुद में समाए जा
रहा है, कही -न-कही
इस वक्त के साथ
मैं कट रही हूँ
हजारों सवालों से
बोझिल पर,
खुद में सिमट रही हूँ
शायद! यही भयानक
त्रासदी है,जिससे
मैं गुजर रही हूँ
खुद ही धीरे-धीरे
कट रही हूँ।
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She spend her pocket money on buying Beauty products
I spend my pocket money to buy a novel
we are not the same bro-
अतीत के गलियारों से गुजरते हुए वो,
बेख्याली में पन्नो को पलट रही है
उफ्फ!!
ये रात का अंधेरा भी कितना भयावह है
जो आज फिर मुझे उस अतीत में लेकर
जा रहा है.....
सोच रही है वो कि वो कल की ही तो
बात है, पर उसका अहसास
इस रात की तरह काला और भयावह
होता जा रहा है....
सोचे जा रही है वो उस गुजरे कल को
मन में थामे हुए है उस हलचल को
क्या फिर वो किरण निकलेगी? या अब
प्रलय आ चुकी है मेरे जीवन में??
ये किताबों के पन्ने कही न कही मेरे
मन की तरह फडफड़ा रहे है ,
वो हवा सरसरी निगाहों से मेरे तन को
छुए जा रही है ...
और पूछ रही है!!
क्या यही जिंदगी है मेरी ?
मेरा क्या कसूर है?
या तो ये रात काली है या मेरा
जीवन ही अंधकारमय है??
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चार कदम चलकर रूक -सी गई हूँ
वक्त के आगे ना जाने क्यों झुक-सी
गई हूँ.....
वक्त बदल चला है..
मेरा "मै" भी अस्मिता की तलाश में
लडने चला है,...
साहस है कदमों में ,
कदम बडे साहसी है
पर मुझे यूं रोककर ये वक्त
ना जाने क्या सिखाने चला है?
वक्त अब बदल चला है।
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आज भी उन संदेशों में लिखे वो बोल
मुझसे आकर बोलते है,पर खिडकियों
के खुलते ही चारों तरफ सन्नाटे दौड़ते है
हां!
उन शब्दों की तासीर जरा ठंडी -सी है
लगता है तूफान आने वाला है ,पर उनसे
तो केवल खिडकियों के परदे ही हिलते है।-