तेरी यादों का मेरे मन-ए-चमन में, बसेरा हो गया है ।
तुम दूर क्या गई, मेरा ही कुछ मुझ ही से खो गया है ।।
ऐसा तो पहले न हुआ, पहले किसी और से दूर जाने पर,
ऐसा लगता है मेरा ही कुछ हिस्सा, मुझसे जुदा हो गया है।।-
मोहब्बत हो गई है तुमसे, ए'तिमाद कैसे दिलाऊं
आता नहीं जताना मुझे ये, कहो, मैं कैसे जताऊं l
तुमसे इक वस्ल का इंतजार, कब से कर रहा हूं,
बेवजह चली आओ, वज़ह-ए-मुलाकात कहाँ से लाऊं।।-
बढ़ती उम्र, बढ़ती जिम्मेदारियां
बढ़ते तजुर्बे , घटती सांसारिकता
घटता मोह, कम होते पारस्परिक भरोसे
......जिंदगी और समाज दोनों की समझ बढ़ रही है।-
किसी को तुम्हारा मिल जाना।
और किसी के हिस्से न आना
फ़र्क होगा..
कोई कहेगा, मेरी ही किस्मत खराब थी, जो तुम मिले मुझे।
कोई कहता होगा, मेरी क़िस्मत में ही नहीं था जो तू न मिला मुझे..-
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक है
विरोधाभासी नही
विरोधाभास से जीवन चलता नही..
बल्कि वाक्युद्ध, उपेक्षा और अपेक्षा
में ही उलझ जाता है.-
मुख़्तसर ख्यालों में, जो तुम मिलने आती हो।
आकर, मेरी मसगूलियत को तोड़ जाती हो।
ग़ुफ्तगू, गिले- शिकवे, शिकायत किससे करूं मैं,
आती तो हो, मगर, फिर तन्हा छोड़ जाती हो।-
काश! तुम समझ जाती मेरी मुहब्बत को, तो मैं यूँ दिल लगी का मारा नहीं होता,
यूं इकतरफा मुहब्बत में भी तुझे ही चाहता, दर-अ-बदर फिरता बंजारा नहीं होता,
तुमने ही तो किनारा किया था मुझसे, मेरी दोस्ती, मेरी मुहब्बत मेरी तआरूफ से!
हाय! कमबख्त, मुझे तो अब भी तेरे सिवा किसी और का साथ गवारा नही होता।-
वस्ल-ए-मुख्तसर में, इक ऐसे यार से मिलना हुआ,
जिसे न दिल लगी हुई हमसे, न वो रुसवा हुआ।
तअल्लुक़-ए-ख़ातिर रूबरू तो हुआ था, वो हमसे,
बा-मशक़्क़त वो शख़्स न मेरा हुआ, न मैं उसका हुआ।-
जब कुछ बोलती नहीं तुम,
तो तुम्हारी खामोशी से मेरी बात होती है।
जागती तो तुम हो, शब भर मेरी याद में,
पर न जाने कितने आज़ार में, मेरी रात होती है।-
किसका होना था, किस-किस का, हो गया हूँ।
न जाने कितने हिस्सों में, बंट गया हूँ ।
ढूंढने जो चला था, ख़ुद ही को मैं "यश",
अब अनजान राहों में, मैं खो गया हूँ ।।-