मन जरा उदास है,
कुछ फुरसत के पल चाहता है।
लोगों के सवालों से दूर,
अपनें संग कुछ वक्त चाहता है।
न कोई कोलाहल हो,न कोई बात हो।
बस अंतर्मन के द्वंद्व युद्ध का हल चाहता है।
पीड़ा स्वयं की है,सब धूमिल सा है,
मन में लगे घाव का मरहम चाहता है।
मन जरा उदास है,कुछ फुरसत के पल चाहता है।
कुछ शाम ख़ुद के संग,
कुछ सुबह बस ख़ुद के नाम हो।
ये मन फिर से उम्मीदों की पतंग चाहता है।
नदी के किनारे अकेले बैठनें का सुकूॅंन
तो अपने घर लौटते पक्षियों का दीदार,
मोबाइल और घर की चारदीवारी से इतर,
स्वच्छंद आकाश की मानसिक सैर चाहता है।
हाॅं ये मन कुछ पल के लिए महफिलों से बैर चाहता है।
ऐसा नहीं है की किसी से नाराजगी है,
पर खुद की समस्याओं का ये मन खुद हल चाहता है।
हाॅं ये मन कुछ फुरसत के पल चाहता है।।
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