Shivam Kumar   (शिवम् झा)
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Joined 21 January 2021


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9 AUG AT 8:08

"काश मेरी भी बहन होती"

तेरा साथ अगर ज़िंदगी में होता,
तो शायद मैं इतना तन्हा न होता।

राखी के दिन जब सूनी कलाई देखी,
दिल रोया—काश कोई अपना होता।

तेरी डाँट भी मुझको मीठी लगती,
तेरी हँसी में मेरा घर बसता।

कोई तेरी तरह मेरा ख़्याल रखता,
मेरे ग़म में खुद भी अश्क बहाता।

अब तो भीड़ में भी तनहा रहता हूँ,
काश मेरी भी बहन का साया होता।

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9 AUG AT 8:06

राखी के दिन सूनी कलाई रह जाती,
दिल में एक टीस गहरी छा जाती।

बचपन की शरारत, वो मीठी झिड़की,
तेरी मुस्कान में मेरी दुनिया सजी थी।

तेरे बिना घर सूना-सूना लगता है,
हँसी के बीच भी दिल रोता है।

अगर तू होती तो ग़म बाँट लेती,
तेरी डाँट में भी मोहब्बत होती।

लोग कहते हैं बहन तो ममता का रूप है,
काश वो ममता मेरी किस्मत में भी लिखी होती।

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26 JUL AT 8:07

तेरी पायल की छमछम मधुर गीत गाती है,
तेरी मुस्कान लूट कर मेरा दिल ले जाती है,
रखा जब हाथ शीशे पर, हुआ मदहोश आईना
ये तेरे हाथों की मेहंदी मेरे मन को भाती है.

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25 JUN AT 19:33

आजकल की मोहब्बत से अच्छा तवायफ़ ही सही,
कम से कम वो खुलेआम जिस्म तो लुटाती है।

यहाँ दिल के सौदे में बस धोखे ही मिलते हैं,
वो दाम लेती है, पर रूह नहीं जलाती है।

किसी की "जान" बनकर भी बेगानी बन जाओ,
इस खेल में हर सच्ची चाहत मर जाती है।

वो आँखों से नहीं, इरादों से नापते हैं लोग,
प्यार अब साजिश है, जो रोज़ चल जाती है।

तवायफ़ तो मजबूरी में पेशा अपनाती है,
यहाँ तो मोहब्बत भी शौक में सिखाई जाती है।

सच्चे इश्क़ की तलाश में कब्र तक पहुँचे हम,
मगर हर मोड़ पे मोहब्बत हमें ठग जाती है।

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23 JUN AT 22:25

धीरे-धीरे गाँव को भी शहर की हवा लग रही है,
पीपल की छाँव अब कुछ कम सुकून दे रही है।

कच्चे आँगन में जो मिट्टी की ख़ुशबू आती थी,
अब वहाँ भी सिमेंट की परतें चढ़ रही हैं।

चौपाल की हँसी, वो अल्हड़पन की बातें,
मोबाइल की स्क्रीन में अब सब गुम हो रही हैं।

गोहूँ की बालियाँ सुनाती थीं जो प्यार की लोरी,
उन खेतों में अब मशीनें शोर कर रही हैं।

माँ की ममता जैसा लगता था वो प्याला दही का,
अब वहाँ भी कोल्ड ड्रिंक की बोतलें चल रही हैं।

गाँव की वो सादगी अब ख़्वाब सी लगती है,
हर गली, हर मोड़ अब परदेश सी लग रही है।

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2 JUN AT 8:48

"तू झंझारपुर की राजकुमारी, मैं दरभंगा का आवारा प्रिये"

तू झंझारपुर की राजकुमारी, मैं दरभंगा का आवारा प्रिये,
तेरे ठाठ में रथ-हाथी, मेरे पास बस गिटार प्रिये।

तू मधुबनी की रंगों जैसी, मैं पोखर के जल सा साफ,
तेरे कदमों में पायल, मेरे दिल में सिर्फ़ तू हर बार प्रिये।

तेरा नाम लूं तो सरयू सी शांति उतर आए,
मैं ग़ज़ल सा बहता जाऊं, तू जैसे हो सारंगी की तार प्रिये।

तेरे गांव की गलियों में जब तेरा जिक्र आए,
लोग कहें — वो तो चानन है, और मैं बस इक चकोर बेक़रार प्रिये।

तू बोलती है तो मधुबनी की लिपि लगती है,
और मैं सुनता हूं तुझे जैसे लोकगीत बारम्बार प्रिये।

तेरा श्रृंगार राजसी, मेरी आंखों का सपना मात्र,
तू मखमल की रानी, मैं पगड़ी में छुपा इक पागल प्यार प्रिये।

तेरी हँसी में कोइल गाए, तेरी चाल में सावन हो,
मैं मोर सा नाचूं जब तू देखे इक बार प्रिये।

मक़ता:
शिवम कहे — तू मिथिला की शान है, मैं तेरा दरबार प्रिये,
तू अगर बोले तो त्याग दूं मैं दरभंगा की आवारगी हर बार प्रिये।

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25 MAY AT 10:36

सुबह की पहली किरण और नेहा

सुबह की रौशनी जब गुनगुनाने लगी,
तेरी यादें भी दिल को जगाने लगी।

कॉफी की चुस्की में तेरा नाम घुला,
तेरी खुशबू हवा में समाने लगी।

फूल भी मुस्कराए तुझे देखकर,
तेरी सूरत बहारें सजाने लगी।

हर दुआ में तुझे ही पुकारा मैंने,
मेरी तन्हाइयाँ तुझसे शर्माने लगी।

मैंने पूछा सहर से तेरा पता,
नेहा कहकर वो भी बताने लगी।

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25 MAY AT 7:48

तेरी उँगलियाँ चलें मेरी पीठ पे जब,
हर रग़ में तेरा नाम उतरता जाए सब।

तेरी छाती पे रख के होंठ भीग जाऊँ मैं,
तेरे नर्म जिस्म से खुद को सिलता पाऊँ मैं।

तेरी जाँघों के दरमियान की गर्मी में,
साँसें जलें, और वक़्त पिघलता जाए वहीं।

तेरी कमर को थाम लूँ जब एक झटके में,
दर्द में भी तू सुकून तलाशती जाए वहीं।

तेरे अंदर उतरता जाऊँ लहरों की तरह,
हर बार तू और गहराती जाए वहीं।

तेरी चीख़ों में हो सिर्फ़ मेरा नाम "शिवम",
तेरी रूह तक भी मेरे साथ हिलती जाए वहीं।

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22 MAY AT 22:15

मोहब्बत नहीं, जिस्म ज़रूरी है — ये आज समझ लिया,
हर लम्हा जो रूह को चाहा — वो राज़ समझ लिया।

लबों पे नाम था उसका, दिल में बसाया भी,
पर वो तो खेल था, ये तो आज समझ लिया।

वो आँखों में झूठी चमक, वो बातों में नक़ाब,
हर मुस्कान के पीछे क्या है — अंदाज़ समझ लिया।

मुझे रूह की प्यास थी, उसे तन की ज़रूरत,
इश्क़ क्या चीज़ है, ये अबके हम ने समझ लिया।

हम समझे थे वफ़ा को, इबादत की तरह,
पर उसने तो हर रिश्ते को सौदा समझ लिया।

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2 MAY AT 22:21

थक गया हूँ अब मुस्कुराते हुए,
दर्द को हर रोज़ छुपाते हुए।

दिल में सूनापन कुछ ऐसा भर गया,
जैसे जीना भी बोझ बन गया।

ना शिकवा किसी से, ना ग़म की शिकायत,
बस ख़ुद से ही अब कोई निस्बत नहीं है।

रातें भी अब सवाल करने लगीं,
"क्या सच में ज़िंदगी में राहत नहीं है?"

शायद अब मैं जल्द ही मर जाऊं, अच्छा होगा,
इस सन्नाटे से कहीं दूर जाऊं, अच्छा होगा।

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