घर मे माँ के खाने पर नख़रे करने वाली लड़की,
आज हर निवाले पर मज़बूरी खा रही हैं।-
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नाउम्मीदी की दीवारों को लांघकर,
फिर एक नई उम्मिन्द दिला रहे हो,
कोशिश में हो कोई जंग जीतने की,
या मुझे ही, मुझसे हरा रहे हो।-
जाने पहचाने रास्तों में मिल जाते हैं,
चंद अनजाने लोग,
बेगाने है,एक अरसे से
न जाने क्या क्या फ़साने सुनाते हैं,
वो चंद अनजाने लोग,
सुना हैं आँखे उठा कर नज़रे मिला पाने,
की हिम्मत तक नहीं उनमें अब,
और हमसे पहल की उम्मीन्द करते हैं,
चंद बचकाने लोग।-
उम्र का तकाज़ा चेहरे से लगाना अब पुरानी बात हो गई,
मैंने बढ़ती उम्र के साथ लोगो को और जंवा होते देखा हैं।-
तेरी यादों में रातें बिताने का तलबगार हूँ मैं,
तेरी बाहों को छोड़ते हुए,
फ़िर लिपट जाने को बेकरार हूँ मैं।
तो ,क्या हुआ जो इश्क़ अधूरा रह गया मेरा,
दुःख तो इस बात का हैं कि ,
जिस गुनाह का ज़िक्र करती रहीं,
अक्सर ये क़लम मेरी,
तेरी नज़रों में वही गुनाहगार हूँ मैं।-
उस छोटी मुस्कान के पीछे,
मेरा बड़ा अफ़सोस थी तुम,
दिल था शायद तेरा ही,
ग़ैर की बाहों में मदहोश थी तुम,
और मौत भी आ जाए,
तो पलटकर न देखूं ऐसी रंजीसे थी दिल में,
खुशियों में शामिल हुई नही कभी,
मेरे गम में जो साथ खड़ी थी,
वो दोस्त थी तुम।-
जिंदगी की कीमत उसे न बताओ,
जिसने क़रीब से मौत देखी हो,
रिश्तों की ख़िदमत उसे न समझाओ,
जिसने अपनो में ही सौत देखी हो,
सुना हैं लौटने की कोशिश में हो तुम,
अब बस भी करो ए मज़ाक
प्रेम के झूठे जाल में उसे न फ़साओ,
जिसने तुम्हारे जैसी बहोत देखी हो।।-
बात बात पर उसका रुतबा दिखाना भी
जायज़ रहा होगा,
बेशक़ आत्मसम्मान में उछलते हुए कीचड़ को,
समेटने वाला भी कायर रहा होगा,
औऱ हिटलर थोड़ी हैं जो तानाशाही
सह लेता उसकी,
पलटकर जवाब देना फ़ितरत नही
हमारी,
शायद ख़ुदा की अदालत में,
वही फ़ैसला वाज़िब रहा होगा।-
माँ के हाथ में झुर्रियों देखा हैं,
कपड़ो से निकलते झाग में मरते,मैंने
अरमानो की तितलियां देखा हैं,
कि देखा हैं सुकून में माँ को,
तो सिर्फ़ सपनों में देखा हैं,
जो हक़ीक़त में देखा हैं,
तो पहली दफ़ा,मशीनों ने देखा हैं।-
क़लम उठाया काग़ज पर,
चित्र अरमानों के बना दिया,
अपाहिज़ था,जो सोच से अपनी,
पँख लगाया और उसे भी,
आसमां में उड़ा दिया।
क़ाबिलियत थी जँहा को मुट्ठी में करने की,
जो कुछ न कर सका,
तो लिए चंद आलू और,
गुपचुप का ठेला लगा लिया।-