लौट आ ऐ "बच्च्पन"
मुझे तेरी याद सताती हैं..
वो दिन भी क्या दिन थे,
माँ-बाप का दुलार,दादा-दादी का पुचकार,
बचकर निकल जाते थें करके गलतियाँ हज़ार,
ख्वाबों का एक मेला था,उमंगों का घेरा था,
बचपन थी ऐसी मानो,जैसे सबकुछ मेरा था,
सुबह का नाश्ता और खाना ना खाने का बहाना,
ना खाने की जिद से माँ को सताना,
छोटी छोटी बातो पर रूठ जाना,
पल में हँसना और सब भूल जाना,
वो दिन भी क्या दिन थे,
लौट आ ऐ "बच्च्पन"..
थक सा गया हूँ इन झूठी "मुस्कानो" से,
अब मुझें फ़िर खुल के हँसना हैं,
मुझे मेरी माँ के "आँचल"में फ़िर से सोना हैं,
इन जिम्मेदारियों के बीच जैसें खो सा गया हूँ,
खुद से ही दूर अब हो सा गया हूँ,
लौट आ ऐ "बच्च्पन"
मुझे तेरी याद सताती हैं..
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