गिरते ढलानों पर बेवजह उग जाने वाले लोग ।
दुसरे की उफान पर उब जाने वाले लोग ।
अपने आईने पर दुसरे को निहारने वाले लोग।
बस बचना है इन्हीं से...
जो अपने प्रतिबिम्ब को सुरम्य बताते हैं लोग।
~~शिवानन्द-
चित्त कि भित्तियों को संभाले कौन!
उत्खनन में लपेट कर संवारें कौन!
एक दौर तलक चला ये कायापलट काल है।
खंडहर लिबासों में ढका हुआ पाषाण काल है।
~~शिवानन्द-
अंतरा के खेल में गुलजार होती जिंदगी।
बेसुध होकर काली रात होती जिंदगी।
कुछ मांग कर भी न मांगे ये है बंदगी।
ईश्वर बस पाक हो जाए ये देखकर जिंदगी।
~~शिवानन्द-
खुद को बेचकर कमा लाएं जिंदगी।
शौक को सुखा कर जला आए जिंदगी।
तनीक न सफर रहा तिनके का...
हवा में उड़े तो छप्पर बना लाएं जिंदगी।
~~शिवानन्द-
सांसों के तानों पर उड़ती हवा।
तन से लिपट कर मचलती हवा।
जुगनू के उजाले पर चलती हवा।
रात के बदन पर खुद को मलती हवा।
बारिश के बुंदों में सम्हलती हवा।
भीगी मिट्टी के सिरहाने पर सनती हवा।
रूकती, चलती, खुद में ठिठुरती हवा।
ये हवा है बस हवा की बात करती हवा।
~~शिवानन्द-
रोटीयों की पीड़ा लेकर...
खुद को सौप रहा है आदमी!
उम्मीदों के ममत्व में...
आसमां रोप रहा है आदमी।
श्रमजल के बैकुंठ में...
नियति, तोड़ रहा है आदमी।
शहर लिए सन्नाटों में...
सरपट दौड़ रहा है आदमी।
~~शिवान्द-
मैंने सोचा था तुम...
जाते हुए अपने हिस्से का शहर ले जाओगे!
मैंने नहीं सोचा था तुम...
यादों की खिदमत लेकर दिल में ठहर जाओगे।
मैंने हर राते बेअदब करवटों में गुज़ारी है।
अब दिल में अदब लिए मेरा इश्क एक जुआरी है।
~~शिवानन्द-
मौन के दोस्त कहां होते है!
बस अपना आईना...
अपना प्रतिबिम्ब यहां होते है।
खुद से बड़ा भुख कहां होता है!
सिलवटें बिखेर कर...
अपना एकांत सुख वहां होता है।
~~शिवानन्द-
बड़ा होकर भी...
बड़ा नहीं होना होता है।
दिवारों के क्रम में खड़े होकर..
घर का कोना नहीं होना होता है।
बड़े शहरों के भागम-भाग छतों में...
गांव के आंगन का खत्म होना नहीं होता है।
~~शिवानन्द-
आत्मबोध पर विचार लिए।
सिददत का संचार लिए।
दुनिया का झनकार लिए।
खुद का इनकार लिए।
सब डोले, सब बात लिए।
मयखानों कि रात लिए।
हर बातों में काश लिए।
शुकून में झूलते खास लिए।
चलती दुनिया हिसाब लिए।
आदम बढ़ गया...
आदमी का लिबास लिए।
~~शिवानन्द-