रोटी, कपड़ा और मकान...
बस इतने हिस्से में इंसान।
रक्त चाप से भी तेज है...
पसीने का प्रधान।
धमनियों में दौड़ रहा है...
जज्बातों का नादान।
माथे के लकीरों पर है...
पीर पंजाल सा मैदान।
चांद लिए चौखट पर बैठा
थोड़ी दूर है ख्वाबों का श्मशान।
~~शिवानन्द-
कई दिनों के तह के बाद...
हिस्से में इतू-सा ‘इतवार’ आता है।
शराफ़त लिए थकान की करवट में...
फुर्सत का ‘घर-बार’ आता है।
~~शिवानन्द-
शोर खुद को खोता है मौन खुद को पाता है।
मानस, आत्मबोध के आंखों में बुद्ध को पाता है।
~~शिवानन्द-
अगर तू ...
दुनिया के गोल इरादे समझ ही जाएंगा मुसाफिर।
संबंधों के दौड़ में ...
उब कर एक दिन केंद्र से दूर रह जाएगा नासिर।
~~शिवानन्द-
मेरे हिस्से का रहबर...
तुम समझ लो तो कोई तरकीब निकालूं।
रफ़्तार में पतवार लिए भवर से राह निकालूं।
~~शिवानन्द-
ऐब के दराज हो तो दुनिया झांकेगी।
परिपक्व अज़ीज़ नहीं जिंदगी के तो दुनिया ताकेगी!
~~शिवानन्द-
बादल अपने रूआब में लाए भर भर कर पानी।
दामिनी अपनी चकाचौंध में लायीं गरजन भर बानीं।
बुंदों के मिलाप में सोंधी बह गयी मिट्टी की रवानी।
ठंड बयारों के लिबास से लिपट गयी धरा की जवानी।
~~शिवानन्द-
खुद के रंग।
खुद के संग।
खुद के दाग।
खुद के राग।
खुद के ऐब।
खुद के रौब।
खुद की राख।
खुद की साख।
खुद की बात।
खुद की रात।
खुद के सार।
सब है यार।
~~शिवानन्द-
क्या होगी...
बड़ी ख्वाहिशे और बड़े पुलिंदे!
जब घर का ईट पट जाए जिंदे।
एक दिन नींव की कमर में बंध जाऐगे फंदे।
सब साख लिए सरियों में गढ़ जायेंगे परिंदे।
सब राग लिए फिरेंगे, सब सांस दिए फिरेंगे।
घर के पिलड़ पर छतों को राख दिए फिरेंगे।
दिवारों के चारों कोनों पर मिलाप दिए फिरेंगे।
खिड़कियों के खुलते ही अपने बाट दिए फिरेंगे।
~~शिवानन्द-
शंखनाद करती अभिलाषा
मन मतंग बना परिभाषा।
देह बनी चितवन की भाषा।
उलझ सुलझ जीवन की आशा।
~~शिवानन्द-