ये जीवन का सौदागर कहा ले आया है।
खानाबदोश, महफ़िलों में उसे डुबो लाया है।
मलंग सा मुसाफिर घर छोड़ आया है।
नादान है दो जून की रोटियां...
जिन्हें पसीने में लपेट कर तोड़ आया है।
शहर में , गांव की रवानगी को...
उठाकर माथे पर खुद का घर ढो लाया है।
अपने गांव के घरौंदे में...
न जाने कितने उम्मीदों को बो आया है।
~~शिवानन्द
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