ये पहाड़ों का रौद्र विरह जो बहता चलता है नदियों की गहराइयों के साथ और जा मिलता है समुद्र के ह्रदय को .. खरा अपूर्ण प्रेम बनकर झलकता है फिर प्रत्येक लहर के उभार में और कौंध कर अंतर्मन तक... धूमिल हो जाता है हर ज्वार की सांस की आख़री सांस में वही अपूर्णता बस निहित रह गयी है दरमियां मेरे और उसके जो कच्ची डोर सी मजबूती लिए बांध ही देती है हमे नित नयननीर की कोमलता से..💔
ये जो हम ख़ोजते हैं तुम्हे कहीं दूर आसमां में बिखरे हर एक तारे की रोशनी में.. कभी तुमने भी क्या जुगनुओं से हमारा पता पूछा था..?
वो जो बारिशों की फ़ुहार में छिपाए थे भीगे सारे शिकवे हमने क्या तुमको भी कभी कुछ ऐसा पागलपन सूझा था...?
हर सांस के साथ जो नाम तेरा गुनगुना जाते हैं हर दफ़ा हम.. क्या तुम्हारा ज़ेहन भी तलाशता है हूबहू वैसे ही हमको या फिर गिरफ़्त में कोई ओर दूजा था...? 💔 ~शिवानी सैनी
सर्द सुबह और पेड़ों की पत्तियों से झांकते सूरज के कुछ कण तुम्हे सुकून देते होंगे .... मग़र वहीं किसी कोमल सी पत्ती की गोद मे छिपी एक नाज़ुक सहमी सी ओस की बूंद की जिंदगी का वो आखरी लम्हा होता है।..
बस वही ओस की बूंद सी हो जाती हूँ मैं भी जब कोई किरण मंडराती है तेरे मन के चहुँ ओर ओर अचानक से कोंध उठते हैं मेरे अहसास सारे
बेबस होती हूँ मैं उस पहर की कहीं तुमको भा गयी उसकी तराशती सी खूबसूरती तो कहीं मैं जिंदा रह पाऊंगी क्या .. या मर भी पाऊंगी क्या किसी ओर के हाथ तुझे खुश देखकर.. ❤❤. ~शिवानी सैनी